श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
आठवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
सुचन्द्र और कलावती के
पूर्व-पुण्य का वर्णन,
उन दोनों का वृषभानु तथा कीर्ति के रूप में अवतरण
श्रुत्वा तदा शौनक भक्तियुक्तः
श्रीमैथिलो ज्ञानभृतां वरिष्ठः ।
नत्वा पुनः प्राह मुनिं महाद्भुतं
देवर्षिवर्यं हरिभक्तिनिष्ठः ॥१॥
बहुलाश्व उवाच -
त्वया कुलं कौ विशदीकृतं मे
स्वानंददोर्यद्यशसामलेन ।
श्रीकृष्णभक्तक्षणसंगमेन
जनोऽपि सत्स्याद्बहुना कुमुस्वित् ॥२॥
श्रीराधया पूर्णतमस्तु साक्षा-
द्गत्वा व्रजे किं चरितं चकार ।
तद्ब्रूहि मे देवऋषे ऋषीश
त्रितापदुःखात्परिपाहि मां त्वम् ॥३॥
श्रीनारद उवाच -
धन्यं कुलं यन्निमिना नृपेण
श्रीकृष्णभक्तेन परात्परेण ।
पूर्णीकृतं यत्र भवान्प्रजातो
शुक्तौ हि मुक्ताभवनं न चित्रम् ॥४॥
अथ प्रभोस्तस्य पवित्रलीलां
सुमङ्गलां संशृणुतां परस्य ।
अभूत्सतां यो भुवि रक्षणार्थं
न केवलं कंसवधाय कृष्णः ॥५॥
अथैव राधां वृषभानुपत्न्या-
मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥६॥
घनावृते व्योम्नि दिनस्य मध्ये
भाद्रे सिते नागतिथौ च सोमे ।
अवाकिरन्देवगणाः स्फुरद्भि-
स्तन्मन्दिरे नन्दनजैः प्रसूनैः ॥७॥
राधावतारेण तदा बभूवु-
र्नद्योऽमलाभाश्च दिशः प्रसेदुः ।
ववुश्च वाता अरविन्दरागैः
सुशीतलाः सुन्दरमन्दयानाः ॥८॥
सुतां शरच्चन्द्रशताभिरामां
दृष्ट्वाऽथ कीर्तिर्मुदमाप गोपी ।
शुभं विधायाशु ददौ द्विजेभ्यो
द्विलक्षमानन्दकरं गवां च ॥९॥
प्रेङ्खे खचिद्रत्नमयूखपूर्णे
सुवर्णयुक्ते कृतचन्दनाङ्गे ।
आन्दोलिता सा ववृधे सखीजनै-
र्दिने दिने चंद्रकलेव भाभिः ॥१०॥
यद्दर्शनं देववरैः सुदुर्लभं
यज्ञैरवाप्तं जनजन्मकोटिभिः ।
सविग्रहां तां वृषभानुमन्दिरे
ललन्ति लोका ललनाप्रलालनैः ॥११॥
श्रीरासरङ्गस्य विकासचन्द्रिका
दीपावलीभिर्वृषभानुमन्दिरे ।
गोलोकचूडामणिकण्ठभूषणां
ध्यात्वा परां तां भुवि पर्यटाम्यहम् ॥१२॥
गर्गजी कहते हैं— शौनक ! राजा
बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था । हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी।
उन्होंने इस प्रसङ्ग को सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाववाले
देवर्षि नारदजीको प्रणाम किया और पुनः पूछा ॥ १ ॥
राजा
बहुलाश्वने कहा - भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य
वृद्धिशील, निर्मल यशसे मेरे कुलको पृथ्वीपर अत्यन्त विशद (
उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्णभक्तों के क्षणभर के
सङ्ग से साधारण जन भी सत्पुरुष - महात्मा बन जाता है। इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ । देवर्षे ! श्रीराधा के
साथ भूतलपर अवतीर्ण हुए साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं
- यह मुझे कृपापूर्वक बताइये । देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप–दुःख
से मेरी रक्षा कीजिये ॥ २-३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्णभक्त राजा निमि ने
समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन
से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया । तुम्हारे इस कुलके लिये कुछ भी विचित्र नहीं है ।
अब तुम उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी परम मङ्गलमयी पवित्र लीलाका श्रवण करो। वे
भगवान् केवल कंसका संहार करनेके लिये ही नहीं, अपितु
भूतलके संतजनोंकी रक्षाके लिये अवतीर्ण हुए थे । उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति
श्रीराधाका वृषभानु की पत्नी कीर्ति-रानी के गर्भ में प्रवेश कराया। वे श्रीराधा
कलिन्दजाकूलवर्ती निकुञ्जप्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं ॥ ४-६ ॥
उस
समय भाद्रपद का महीना था । शुक्लपक्ष को अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का
समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवनपर
बरसा रहे थे। उस समय श्रीराधिकाजीके अवतार धारण करनेसे नदियोंका जल स्वच्छ हो गया।
सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न — निर्मल हो उठीं। कमलोंकी सुगन्धसे व्याप्त शीतल वायु
मन्दगतिसे प्रवाहित हो रही थी ॥ ७-८ ॥
शरत्पूर्णिमा
के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिराम कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में
निमग्न हो गयीं। उन्होंने मङ्गलकृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी
दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान कीं। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये
भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों
जन्मोंतक तप करनेपर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही
श्रीराधिकाजी जब वृषभानुके यहाँ साकाररूपसे प्रकट हुईं और गोप- ललनाएँ जब उनका
लालन- पालन करने लगीं, तब सर्वसाधारण लोग उनका दर्शन करने
लगे। सुवर्णजटित एवं सुन्दर रत्नोंसे खचित, चन्दननिर्मित तथा
रत्नकिरण-मण्डित पालने में
सखीजनोंद्वारा
नित्य झुलायी जाती हुई श्रीराधा प्रतिदिन शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति
बढ़ने लगीं ॥ ९-११ ॥
श्रीराधा
क्या हैं— रास की रङ्गस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका,
वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक - चूड़ामणि
श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली । मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर
विचरता रहता हूँ ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से