शुक्रवार, 21 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

वकासुरका उद्धार

 

तदा मृतस्य दैतस्य ज्योतिः कृष्णे समाविशत् ।
देवता ववृषुः पुष्पैः जयारावैः समन्विताः ॥ २५ ॥
गोपाला विस्मिताः सर्वे कृष्णं संश्लिष्य सर्वतः ।
ऊचुस्त्वं कुशलीभूतो मुक्तो मृत्युमुखात्सखे ॥ २६ ॥
एवं कृष्णो बकं हत्वा सबलो बालकैः सह ।
गोवत्सैर्हर्षितो गायन्नाययौ राजमंदिरे ॥ २७ ॥
परिपूर्णतमस्यास्य श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
जगुर्गृहे गता बालाः श्रुत्वेदं तेऽतिविस्मिताः ॥ २८ ॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं दैत्यः पूर्वकाले कस्मात्केन बकोऽभवत् ।
पूर्णब्रह्मणि सर्वेशे श्रीकृष्णे लीनतां गतः ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
हयग्रीवसुतो दैत्य उत्कलो नाम हे नृप ।
रणेऽमरान् विनिर्जित्य शक्रछत्रं जहार ह ॥ ३० ॥
तथा नृणां नृपाणां च राज्यं हृत्वा महाबलः ।
चकार वर्षाणि शतं राज्यं सर्वविभूतिमत् ॥ ३१ ॥
एकदा विचरन् दैत्यः सिंधुसागरसंगमे ।
जाजलेर्मुनिसिद्धस्य पर्णशालासमीपतः ॥ ३२ ॥
जले निक्षिप्य बडिशं मीनानाकर्षयन् मुहुः ।
निषेधितोऽपि मुनिना नामन्यत स दुर्मतिः ॥ ३३ ॥
तस्मै शापं ददौ सिद्धो जाजलिर्मुनिसत्तमः ।
बकवत्त्वं झषानत्सि त्वं बको भव दुर्मते ॥ ३४ ॥
तत्क्षणाद्‌बकरूपोऽभूद्‌भ्रष्टतेजा गतस्मयः ।
पतितः पादयोस्तस्य नत्वा प्राह कृतांजलिः ॥ ३५ ॥

उस समय मृत्यु को प्राप्त हुए दैत्य की देह से एक ज्योति निकली और श्रीकृष्ण में समा गयी । फिर तो देवता जय-जयकार करते हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे । तब समस्त ग्वाल-बाल आश्चर्यचकित हो, सब ओर से आकर श्रीकृष्ण से लिपट गये और बोले- 'सखे ! आज तो तुम मौत के मुख से कुशलपूर्वक निकल आये' ।। २५-२६ ॥

 

इस प्रकार वकासुर को मारने के पश्चात् बछड़ों को आगे करके श्रीकृष्ण बलराम और ग्वाल-बालों के साथ गीत गाते हुए सहर्ष राजभवनमें लौट आये । परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णके इस पराक्रमपूर्ण चरित्र का घर लौटे हुए ग्वाल-बालोंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। उसे सुनकर समस्त गोप अत्यन्त विस्मित हुए ।। २७-२८ ।।

 

बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! यह वकासुर पूर्वकालमें कौन था और किस कारणसे उसको बगुलेका शरीर प्राप्त हुआ था ? वह पूर्णब्रह्म सर्वेश्वर श्रीकृष्णमें लीन हुआ, यह कितने सौभाग्य- की बात है ! ॥ २९ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- नरेश्वर ! 'हयग्रीव' नामक दैत्यके एक पुत्र था, जो 'उत्कल' नाम से प्रसिद्ध हुआ । उसने समराङ्गण में देवताओं को परास्त करके देवराज इन्द्र के छत्र को छीन लिया था । उस महाबली दैत्य ने और भी बहुत-से मनुष्यों तथा नरेशों की राज्य-सम्पत्ति का अपहरण करके सौ वर्षों- तक सर्ववैभवसम्पन्न राज्य का उपभोग किया ।। ३०-३१ ॥

 

एक दिन इधर-उधर विचरता हुआ दैत्य उत्कल गङ्गा- सागरसंगम पर सिद्ध मुनि जाजलिकी पर्णशालाके समीप गया और पानी में बंसी डालकर बारंबार मछलियों को पकड़ने लगा । यद्यपि मुनि ने मना किया, तथापि उस दुर्बुद्धि ने उनकी बात नहीं मानी। मुनिश्रेष्ठ जाजलि सिद्ध महात्मा थे, उन्होंने उत्कल को शाप देते हुए कहा- 'दुर्मते ! तू बगुले की भाँति मछली पकड़ता और खाता है, इसलिये बगुला ही हो जा।' फिर क्या था ? उत्कल उसी क्षण बगुले के रूप में परिणत हो गया। तेजोभ्रष्ट हो जानेके कारण उसका सारा गर्व गल गया। उसने हाथ जोड़कर मुनिको प्रणाम किया और उनके दोनों चरणों में पड़कर कहा ॥३२-३५॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित्‌का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः
    कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत् ।
विज्ञापयामास विविक्तचेता
    उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः ॥ १२ ॥

राजोवाच

अहो वयं धन्यतमा नृपाणां
    महत्तमानुग्रहणीयशीलाः ।
राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचाद्
    दूराद् विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म ॥ १३ ॥
तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो
    व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम् ।
निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो
    यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते ॥ १४ ॥
तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा
    गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे ।
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा
    दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः ॥ १५ ॥
पुनश्च भूयाद्‍भगवत्यनन्ते
    रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु ।
महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं
    मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः ॥ १६ ॥

जब सब लोग आरामसे अपने-अपने आसनोंपर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित्‌ने उन्हें फिरसे प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदयसे अञ्जलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ॥ १२ ॥
राजा परीक्षित्‌ने कहा—अहो ! समस्त राजाओंमें हम धन्य हैं। धन्यतम हैं। क्योंकि अपने शीलस्वभावके कारण हम आप महापुरुषोंके कृपापात्र बन गये हैं। राजवंशके लोग प्राय: निन्दित कर्म करनेके कारण ब्राह्मणोंके चरण-धोवनसे दूर पड़ जाते हैं—यह कितने खेदकी बात है ॥ १३ ॥ मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहनेके कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ। इसीसे स्वयं भगवान्‌ ही ब्राह्मणके शापके रूपमें मुझपर कृपा करनेके लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। क्योंकि इस प्रकारके शापसे संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ॥ १४ ॥ ब्राह्मणो ! अब मैंने अपने चित्तको भगवान्‌के चरणोंमें समर्पित कर दिया है। आपलोग और मा गङ्गाजी शरणागत जानकर मुझपर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमारके शापसे प्रेरित कोई दूसरा कपटसे तक्षकका रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले; इसकी मुझें तनिक भी परवा नहीं है। आपलोग कृपा करके भगवान्‌की रसमयी लीलाओंका गायन करें ॥ १५ ॥ मैं आप ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रणाम करके पुन: यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनिमें जन्म लेना पड़े, भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओंसे विशेष प्रीति हो और जगत्के समस्त प्राणियोंके प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 20 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

वकासुरका उद्धार

 

धनदस्तं च खड्गेन सुतीक्ष्णेन जघान ह ।
छिन्नद्वितीयपक्षोऽभूतन्न मृतो दैत्यपुंगवः ॥ १२ ॥
नीहारास्त्रेण तं सोमः संजघान महाबकम् ।
शीतार्त्तो मूर्छितो दैत्यो न मृतः पुनरुत्थितः ॥ १३ ॥
आग्नेयास्त्रेण तं ह्यग्निः सन्तताड महाबकम् ।
भस्मरोमाभवद्दैत्यो न ममार महाखलः ॥ १४ ॥
अपां पतिस्तं पाशेन बद्ध्वा कौ विचकर्ष ह ।
कर्षणात्स महापापः छिन्नोऽभूतन्न मृतश्च वै ॥ १५ ॥
तताड गदया तं वै भद्रकाली तरस्विनी ।
मूर्छितस्तत् प्रहारेण परं कश्मलतां ययौ ॥ १६ ॥
क्षतमूर्धा समुत्थाय विधुन्वन् स्वतनुं पुनः ।
जगर्ज घनवद्‌वीरो बको दैत्यो महाखलः ॥ १७ ॥
तदा शक्तिधरः शक्तिं तस्मै चिक्षेप सत्वरः ।
तयैकपादो भग्नोऽभून्न मृतः पक्षिणां वरः ॥ १८ ॥
तदा क्रोधेन सहसा धावन् दैत्यस्तडित्स्वनः ।
देवान् विद्रावयामास स्वचंच्वा तीक्ष्णतुण्डया ॥ १९ ॥
अग्रे पलायितान् देवानन्वधावद्‌बकोऽम्बरे ।
पुनस्तत्र गतो दैत्यो नादयन्मंडलं दिशाम् ॥ २० ॥
तदा देवर्षयः सर्वे सर्वे ब्रह्मर्षयो द्विजाः ।
श्रीनन्दनन्दनायाशु सफलां चाशिषं ददुः ॥ २१ ॥
तदैव कृष्णस्तन्मध्ये ततान वपुरुज्ज्वलम् ।
चच्छर्द कृष्णं सहसा क्षतकंठो महाबकः ॥ २२ ॥
पुनः कृष्णं समाहर्तुं तीक्ष्णया तुंडयाऽगतम् ।
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णः पोथयामास भूतले ॥ २३ ॥
पुनरुत्थाय तुण्डं स्वं प्रसार्य्यावस्थितं बकम् ।
ददार तुंडे हस्ताभ्यां कृष्णः शाखां गजो यथा ॥ २४ ॥

तब कुबेर ने तीखी तलवार से उसके ऊपर चोट की। इससे उसकी दूसरी पाँख भी कट गयी, किंतु वह दैत्यपुंगव मृत्युको नहीं प्राप्त हुआ। तदनन्तर सोमदेवता ने उस महावकपर नीहारास्त्र का प्रयोग किया। उसके प्रहार से शीतपीड़ित हो वकासुर मूर्च्छित तो हो गया, किंतु मरा नहीं, फिर उठकर खड़ा हो गया ।। १२-१३ ॥

 

अब अग्निदेवता ने उस महावकपर आग्नेयास्त्र- से प्रहार किया; इससे उसके रोएँ जल गये, परंतु उस महादुष्ट दैत्यकी मृत्यु नहीं हुई। तत्पश्चात् जलके स्वामी वरुणने उसको पाशसे बाँधकर धरतीपर घसीटा। घसीटनेसे वह महापापी असुर क्षत-विक्षत हो गया; किंतु मरा नहीं ॥ १४-१५ ॥

 

तदनन्तर वेगशालिनी भद्रकालीने आकर उसपर गदासे प्रहार किया । गदाके प्रहारसे मूर्च्छित हो वकासुर अत्यन्त वेदनाके कारण सुध-बुध खो बैठा। उसके मस्तकपर चोट पहुँची थी, तथापि वह अपने शरीरको कँपाता और फड़फड़ाता हुआ फिर उठकर खड़ा हो गया और वह महादुष्ट दैत्य धीरतापूर्वक समराङ्गणमें स्थित हो मेघोंकी भाँति गर्जना करने लगा। उस समय शक्तिधारी स्कन्दने बड़ी उतावलीके साथ उसके ऊपर अपनी शक्ति चलायी। उसके प्रहारसे उस पक्षिप्रवर असुरकी एक टॉंग टूट गयी, किंतु वह मर न सका । तदनन्तर विद्युत्की गड़गड़ाहटके समान गर्जना करते हुए उस दैत्यने सहसा क्रोधपूर्वक धावा किया और अपनी तीखी चोंच से मार-मारकर सब देवताओंको खदेड़ दिया। आकाशमें आगे-आगे देवता भाग रहे थे और पीछे से वकासुर उन्हें खदेड़ रहा था । इसके बाद वह दैत्य पुनः वहीं लौट आया और समस्त दिङ्मण्डल को अपने सिंहनाद से निनादित करने लगा ॥ १६-२० ॥

 

उस समय समस्त देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों तथा द्विजोंने श्रीनन्दनन्दनको शीघ्र ही सफल आशीर्वाद प्रदान किया। उसी समय श्रीकृष्णने वकासुरके शरीरके भीतर अपने ज्योतिर्मय दिव्य देह को बढ़ाकर विस्तृत कर लिया। फिर तो उस महावक का कण्ठ फटने लगा और उसने सहसा श्रीकृष्ण को उगल दिया ।। २१-२२ ॥

 

फिर तीखी चोंच से श्रीकृष्ण को पकड़नेके लिये जब वह पास आया, तब श्रीकृष्णने झपटकर उसकी पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा; किंतु वह पुनः उठकर चोंच फैलाये उनके सामने खड़ा हो गया। तब श्रीकृष्णने दोनों हाथोंसे उसकी दोनों चोंचें पकड़ लीं और जैसे हाथी किसी वृक्षकी शाखाको चीर डाले, उसी तरह उसे विदीर्ण कर दिया ॥ २३ - २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित्‌का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

अथो विहायेमममुं च लोकं
    विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् ।
कृष्णाङ्‌घ्रिसेवामधिमन्यमान
    उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ॥ ५ ॥
या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र
    कृष्णाङ्‌घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री ।
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्
    कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ॥ ६ ॥
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः
    प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।
दधौ मुकुन्दाङ्‌घ्रिमनन्यभावो
    मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ७ ॥
तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना
    महानुभावा मुनयः सशिष्याः ।
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः
    स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः ॥ ८ ॥
अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वान्
    अरिष्टनेमिर्भृगुरङ्‌गिराश्च ।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम
    उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ ॥ ९ ॥
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो
    भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः ।
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिः
    द्वैपायनो भगवान् नारदश्च ॥ १० ॥
अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या
    राजर्षिवर्या अरुणादयश्च ।
नानार्षेयप्रवरान् समेतान्
    अभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे ॥ ११ ॥

वे (राजा परीक्षित्‌) इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपत: त्याग करके भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशन-व्रत लेकर वे गङ्गातटपर बैठ गये ॥ ५ ॥ गङ्गाजीका जल भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलोंका वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसीकी गन्धसे मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालोंके सहित ऊपर-नीचेके समस्त लोकोंको पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ६ ॥ इस प्रकार गङ्गाजी के तटपर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियोंका व्रत स्वीकार करके अनन्यभावसे श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करने लगे ॥ ७ ॥ उस समय त्रिलोकीको पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्योंके साथ वहाँ पधारे। संतजन प्राय: तीर्थयात्राके बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानोंको ही पवित्र करते हैं ॥ ८ ॥ उस समय वहाँपर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अङ्गिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आॢष्टषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान्‌ व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रहमर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्योंका शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रोंके मुख्य-मुख्य ऋषियोंको एकत्र देखकर राजाने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणोंपर सिर रखकर वन्दना की ॥९-११॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 19 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पाँचवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

वकासुरका उद्धार

 

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्हरिः ।
यमुनानिकटे प्राप्तं बकं दैत्यं ददर्श ह ॥ १ ॥
श्वेतपर्वतसंकाशो बृहत्पादो घनध्वनिः ।
पलायितेषु बालेषु वज्रतुंडोऽग्रसद्धरिम् ॥ २ ॥
रुदन्तो बालकाः सर्वे गतप्राणा इवाभवन् ।
हाहाकारं तदा कृत्वा देवाः सर्वे समागताः ॥ ३ ॥
इंद्रो वज्रं तदा नीत्वा तं तताड महाबलम् ।
तेन घातेन पतितो न ममार समुत्थितः ॥ ४ ॥
ब्रह्मापि ब्रह्मदंडेन तं तताड महाबकम् ।
तेन घातेन पतितो मूर्छितो घटिकाद्वयम् ॥ ५ ॥
विधुन्वन् स्वतनुं वेगातज्जृम्भितः पुनरुत्थितः ।
न ममार तदा दैत्यो जगर्ज घनवद्‌बली ॥ ६ ॥
त्रिलोचनस्त्रिशूलेन तं जघान महासुरम् ।
छिन्नैकपक्षो दैत्योऽपि न मृतोऽतिभयंकरः ॥ ७ ॥
वायव्यास्त्रेण वायुस्तं संजघान बकमतः ।
उच्चचाल बकस्तेन पुनस्तत्र स्थितोऽभवत् ॥ ८ ॥
यमस्तं यमदण्डेन ताडयामास चाग्रतः ।
तेन दण्डेन न मृतो बको वै चण्डविक्रमः ॥ ९ ॥
दण्डोऽपि भग्नतां प्रागात् स क्षतो नाभवद् बकः ।
तदैव चाग्रतः प्राप्तश्चण्डांशुश्चण्डविक्रमः ॥ १० ॥
शतबाणैर्बकं दैत्यं संजघान धनुर्धरः ।
तीक्ष्णैः पक्षगतैर्बाणैर्न ममार बकस्ततः ॥ ११ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिन बलराम तथा ग्वाल-बालोंके साथ बछड़े चराते हुए श्रीहरिने यमुनाके निकट आये हुए वकासुरको देखा। वह श्वेत पर्वतके समान ऊँचा दिखायी देता था। बड़ी-बड़ी टाँगें और मेघ गर्जनके समान ध्वनि ! उसे देखते ही ग्वाल-बाल डरके मारे भागने लगे। उसकी चोंच वज्रके समान तीखी थी। उसने आते ही श्रीहरिको अपना ग्रास बना लिया। यह देख सब ग्वाल-बाल रोने लगे। रोते-रोते वे निष्प्राण से हो गये । उस समय हाहाकार करते हुए सब देवता वहाँ आ पहुँचे ।। १-५ ॥

 

इन्द्रने तत्काल वज्र चलाकर उस महान् वकपर प्रहार किया । वज्रकी चोटसे वकासुर धरतीपर गिर पड़ा, किंतु मरा नहीं। वह फिर उठकर खड़ा हो गया। तब ब्रह्माजीने भी कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्डसे मारा। उस आघातसे गिरकर वह असुर दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा रहा ।। ४-५ ॥

 

फिर अपने शरीरको कँपाता हुआ जँभाई लेकर वह बड़े वेगसे उठ खड़ा हुआ। उसकी मृत्यु नहीं हुई। वह बलवान् दैत्य मेघके समान गर्जना करने लगा । इसी समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने उस महान् असुरपर त्रिशूलसे प्रहार किया। उस प्रहारसे दैत्यकी एक पाँख कट गयी, तो भी वह महाभंयकर असुर मर न सका । तदनन्तर वायुदेवने वकासुरपर वायव्यास्त्र चलाया; उससे वह कुछ ऊपरकी ओर उठ गया, परंतु पुनः अपने स्थानपर आकर खड़ा हो गया ।। ६-८ ॥

 

इसके बाद यम ने सामने आकर उसपर यमदण्ड से प्रहार किया, परंतु प्रचण्ड पराक्रमी वकासुरकी उस दण्डसे भी मृत्यु नहीं हुई। यमराज का वह दण्ड भी टूट गया, किंतु वकासुर को कोई क्षति नहीं पहुँची। इतनेमें  ही प्रचण्ड किरणोंवाले चण्डपराक्रमी सूर्यदेव उसके सामने आये। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर वकासुर को सौ बाण मारे । वे तीखे बाण उसकी पाँख में धँस गये, फिर भी वह मर न सका ।। ९-११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित्‌ का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

सूत उवाच ।

महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
    विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः ।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
    निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
    दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
    यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥
अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं
    प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे ।
दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्
    पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥ ३ ॥
स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद् यथा
    मुनेः सुतोक्तो निर्ॠतिस्तक्षकाख्यः ।
स साधु मेने न चिरेण तक्षका-
    नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४ ॥

सूतजी कहते हैं—राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षित्‌को अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेदकी बात है ॥ १ ॥ अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र-से-शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दु:साहस नहीं करूँगा ॥ २ ॥ ब्राह्मणोंकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजानेको जलाकर खाक कर दे—जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओंके प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो ॥ ३ ॥ वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ—ऋषिकुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आगके समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनोंसे मैं संसारमें आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया ॥ ४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


मंगलवार, 18 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौथा अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

श्रीबलराम और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार

 

एकदा वत्सवृन्देषु प्राप्तं वत्सासुरं नृप ।
कंसप्रणोदितं ज्ञात्वा शनैस्तत्र जगाम ह ॥ १८ ॥
धावन् गोपेषु सर्वत्र लांगूलं चालयन्मुहुः ।
दैत्यः पश्चिमपादाभ्यां हरिमंसे तताड ह ॥ १९ ॥
पलायितेषु बालेषु कृष्णस्तं पादयोर्द्वयोः ।
गृहीत्वा भ्रामयित्वाश्च पातयामास भूतले ॥ २० ॥
पुनर्नीत्वा कराभ्यां तं कपित्थे प्राहिणोद् हरिः ।
तदा मृत्युं गते दैत्ये कपित्थोऽपि महाद्रुमः ॥ २१ ॥
कपित्थान् पातयामास तदद्‌भुतमिवाभवत् ।
विस्मितेषु च बालेषु साधु साध्विति वादिषु ॥ २२ ॥
दिवि देवा जयारावैः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
तद्दैत्यस्य महज्ज्योतिः कृष्णे लीनं बभूव ह ॥ २३ ॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो पूर्वं सुकृतकृत्कोऽयं वत्सासुरो मुने ।
श्रीकृष्णे लीनतां प्राप्तः श्रीप्रपूर्णे परात्परे ॥ २४ ॥


श्रीनारद उवाच -
मुरुपुत्रो महादैत्यः प्रमीलो नाम देवजित् ।
वसिष्ठस्याश्रमे प्राप्तो नन्दिनीं गां ददर्श ह ॥ २५ ॥
तल्लिप्सुर्ब्राह्मणो भूत्वा ययाचे गां मनोहराम् ।
तूष्णीं स्थिते गौरुवाच वसिष्ठे दिव्यदर्शने ॥ २६ ॥


नन्दिनी उवाच -
मुनीनां गां समाहर्तुं भूत्वा विप्रः समागतः ।
दैत्योऽसि मुरुजस्तस्माद्‌गोवत्सो भव दुर्मते ॥ २७ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव वत्सरूपोऽभून्मुरुपुत्रो महासुरः ।
वसिष्ठं गां परिक्रम्य नत्वा त्राहीत्युवाच ह ॥ २८ ॥


गौरुवाच -
द्वापरान्ते महादैत्य वृंदारण्ये यदा तव ।
गोवत्सेषु गतस्यापि तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे पतितपावने ।
तस्मात् वत्सासुरो दैत्यो लीनोऽभूत् न हि विस्मयः ॥ ३० ॥

 

नरेश्वर ! एक दिन उनके बछड़ों के झुंड में कंस का भेजा हुआ वत्सासुर आकर मिल गया। श्रीकृष्ण को यह बात विदित हो गयी और वे उसके पास गये। वह दैत्य गोप-बालकों के बीचमें  सब ओर पूँछ उठाकर बार-बार दौड़ता हुआ दिखायी देता था । उसने अचानक आकर अपने पिछले पैरोंसे श्रीकृष्णके कंधोंपर प्रहार किया । अन्य गोप-बालक तो भाग चले, किंतु श्रीकृष्ण ने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे घुमाकर धरती पर पटक दिया ।। १८-२० ॥

 

इसके बाद श्रीहरि- ने फिर उसे हाथोंसे उठाकर कपित्थ वृक्षपर दे मारा। फिर तो वह दैत्य तत्काल मर गया। उसके धक्केसे महान् कपित्थ वृक्षने स्वयं गिरकर दूसरे दूसरे वृक्षोंको भी धराशायी कर दिया । यह एक अद्भुत-सी बात हुई । समस्त ग्वालबाल आश्चर्यसे चकित हो कन्हैया- को वहाँ साधुवाद देने लगे। देवतालोग आकाश में खड़े हो जय-जयकार करते हुए फूल बरसाने लगे । उस दैत्य की विशाल ज्योति श्रीकृष्णमें लीन हो गयी ।। २१ - २३ ॥

 

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। बताइये तो, इस वत्सासुरके रूपमें पहले का कौन-सा पुण्यात्मा पुरुष प्रकट हो गया था, जो परि-पूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णमें विलीन हुआ ? ॥ २४ ॥

 

श्रीनारदजी बोले - राजन् ! मुर के एक पुत्र था, जो महादैत्य 'प्रमील' के नाम से विख्यात था। उसने देवताओंको भी युद्धमें जीत लिया था। एक दिन वह वसिष्ठ मुनिके आश्रमपर गया। वहाँ उसने मुनि की होमधेनु नन्दिनी को देखा। उसे पाने की इच्छा से वह ब्राह्मण का रूप धारण करके मुनि के पास गया और उस मनोहर गौ के लिये याचना करने लगा। महर्षि दिव्य दर्शी थे; अतः सब कुछ जानकर भी चुप रह गये, कुछ बोले नहीं। तब गौ ने स्वयं कहा ।।२५-२६॥

 

श्रीनन्दिनी बोली- दुर्मते ! तू मुरका पुत्र दैत्य है, तो भी मुनियोंकी गौका अपहरण करनेके लिये ब्राह्मण बनकर आया है; अतः गाय का बछड़ा हो जा ॥ २७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! नन्दिनीके इतना कहते ही वह मुरपुत्र महान् गोवत्स बन गया । तब उसने मुनिवर वसिष्ठ तथा उस गौकी परिक्रमा एवं प्रणाम करके कहा- 'मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २८ ॥

 

गौ बोली- महादैत्य ! द्वापरके अन्तमें जब तू श्रीकृष्णके बछड़ोंमें घुस जायगा, उस समय तेरी मुक्ति होगी ॥ २९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- उसी शाप और वरदानके कारण परिपूर्णतम पतितपावन साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णमें दैत्य वत्सासुर विलीन हुआ। इसमें विस्मयकी कोई बात नहीं है ॥ ३० ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'वत्सासुरका मोक्ष' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः ।
साक्षान् महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ॥ ४६ ॥
क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ४६.५ ।
अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।
पापं कृतं तद्‍भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ४७ ॥
तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्‍भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ४८ ॥
इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् ॥ ४९ ॥
प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ।
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः ॥ ५० ॥

सम्राट् परीक्षित्‌ तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान्‌के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ॥ ४६ ॥ इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान्‌ कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ ४७ ॥ भगवान्‌के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते ॥ ४८ ॥ महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षित्‌ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ॥ ४९ ॥ महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्राय: हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नाम्ना अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 17 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौथा अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौथा अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

श्रीबलराम और श्रीकृष्णके द्वारा बछड़ों का चराया जाना तथा वत्सासु रका उद्धार

 

सन्नन्दस्य वचः श्रुत्वा गन्तुं नन्दः समुद्यतः ।
सर्वैर्गोपगणैः सार्धं मुदितोऽभून्महामनाः ॥ १ ॥
यशोदया च रोहिण्या सर्वगोपीगणैः सह ।
अश्वै रथैर्वीरजनैर्मण्डितो विप्रमंडलैः ॥ २ ॥
गोभिश्च शकटैर्युक्तो वृद्धैर्बालैस्तथानुगैः ।
गायकैर्गीयमानश्च शंखदुंदुभिनिःस्वनैः ॥ ३ ॥
पुत्राभ्यां रामकृष्णाभ्यां नन्दराजो महामतिः ।
रथमारुह्य हे राजन् वनं वृंदावनं ययौ ॥ ४ ॥
वृषभानुवरो गोपो गजमारुह्य भार्यया ।
अंके नीत्वा सुतां राधां गीयमानश्च गायकैः ॥ ५ ॥
मृदंगतालवीणानां वेणूनां कलनिःस्वनैः ।
गोपालगोगणैः सार्धं वृन्दारण्यं जगाम ह ॥ ६ ॥
उपनन्दास्तथा नन्दाः तथा षड् वृषभानवः ।
सर्वैः परिकरैः सार्धं जग्मुर्वृन्दावनं वनम् ॥ ७ ॥
वृंदावने संप्रविश्य गोपाः सर्वे सहानुगाः ।
घोषान् विधाय वसतीर्वासं चक्रुरितस्ततः ॥ ८ ॥
सभामण्डपसंयुक्तं सदुर्गं परिखायुतम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णं सप्तद्वारसमन्वितम् ॥ ९ ॥
सरोवरैः परिवृतं राजमार्गं मनोहरम् ।
सहस्रकुञ्जं च पुरं वृषभानुरचीकॢपत् ॥ १० ॥
श्रीकृष्णो नन्दनगरे वृषभानुपुरेऽर्भकैः ।
चचार क्रीडनपरो गोपीनां प्रीतिमावहन् ॥ ११ ॥
अथ वृन्दावने राजन् सर्वगोपालसम्मतौ ।
बभूवतुर्वत्सपालौ रामकृष्णौ मनोहरौ ॥ १२ ॥
चारयामासतुर्वत्सान् ग्रामसीम्न्यर्भकैः सह ।
कालिन्दीनिकटे पुण्ये पुलिने रामकेशवौ ॥ १३ ॥
निकुञ्जेषु च कुञ्जेषु सम्प्रलीनावितस्ततः ।
रिङ्‌गमाणौ च कुत्रापि नन्दंतौ चेरतुर्वने ॥ १४ ॥
किंकिणीजालसंयुक्तौ सिञ्चन्मञ्जीरनूपुरौ ।
नीलपीताम्बरधरौ हारकेयूरभूषितौ ॥ १५ ॥
क्षेपणैः क्षिपतौ बालैर्वंशीवादनतत्परौ ।
मुखेन किंकिणीशब्दं कुर्वद्‌भिर्बालकैश्च तौ ॥ १६ ॥
धावन्तौ पक्षिभिश्छायां रेजतू रामकेशवौ ।
मयूरपक्षसंयुक्तौ पुष्पपल्लवभूषितौ ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! सन्नन्दकी बात सुनकर महामना नन्दराज समस्त गोपगणोंके साथ बड़े प्रसन्न हुए और वृन्दावनमें जानेको तैयार हो गये। यशोदा, रोहिणी तथा समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ घोड़ों, रथों, वीर पुरुषों तथा विप्रमण्डलीसे मण्डित हो, परम बुद्धिमान् नन्दराज दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण- सहित रथपर आरूढ़ हो वृन्दावनकी ओर चल दिये। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था । बूढ़े, बालक और सेवकोंसहित अनेक छकड़े चल रहे थे। यात्राके समय शङ्ख बजे और नगारोंकी ध्वनियाँ हुईं। बहुत-से गायक नन्दराजका यशोगान कर रहे थे । १-४ ॥

 

गोप वृषभानुवर अपनी पत्नीके साथ हाथीपर बैठकर, पुत्री राधाको अङ्कमें लिये, गायकोंसे यशोगान सुनते हुए, मृदङ्ग, ताल, वीणा और वेणुओंकी मधुर ध्वनिके साथ वृन्दावनको गये । उनके साथ भी बहुतसे गोप और गौओंका समुदाय था । नन्द, उपनन्द और छहों वृषभानु भी अपने समस्त परिकरोंके साथ वृन्दावनमें गये । समस्त गोपोंने अपने सेवकोंसहित वृन्दावनमें प्रवेश करके अलग-अलग गोष्ठ बनाये और इधर-उधर निवास आरम्भ किया। वृषभानुने अपने लिये वृषभानुपुर (बरसाना) नामक नगरका निर्माण कराया, जो चार योजन विस्तृत दुर्गके आकार में था। उसके चारों ओर खाइयाँ बनी थीं। उस दुर्गके सात दरवाजे थे। दुर्गके भीतर विशाल सभामण्डप था। अनेक सरोबर उस दुर्गकी शोभा बढ़ा रहे थे। बीच-बीचमें मनोहर राजमार्गका निर्माण कराया गया था । एक सहस्र कुझें उस पुरकी शोभा बढ़ाती थीं ॥ ५ – १० ॥

 

श्रीकृष्ण नन्दनगर ( नन्दगाँव) तथा वृषभानुपुर (बरसाने) में बालकोंके साथ क्रीड़ा करते हुए घूमते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते थे । राजन्! कुछ दिनों बाद सम्पूर्ण गोपोंके समादर-भाजन मनोहर रूपवाले बलराम और श्रीकृष्ण वृन्दावन में बछड़े चराने लगे। वे दोनों भाई ग्वाल-बालों के साथ गाँव की सीमा तक जाकर बछड़े चराते थे। कालिन्दी के निकट उसके पावन पुलिन पर सुशोभित निकुञ्जों और कुञ्जों में बलराम और श्रीकृष्ण इधर-उधर लुकाछिपी के खेल खेलते और कहीं-कहीं रेंगते हुए चलकर वन में सानन्द विचरते थे ।। ११ - १४ ॥

 

उन दोनों के कटिप्रदेश में करधनीकी लड़ियाँ शोभा देती थीं। खेलते समय उनके पैरोंके मञ्जीर और नूपुर मधुर झंकार फैलाते थे । बलरामके अङ्गोंपर नीलाम्बर शोभा पाता था और श्रीकृष्णके अङ्गोंपर पीतपट । वे दोनों भाई हार और भुजबंदोंसे भूषित थे। कभी बालकोंके साथ क्षेपणों (ढेलवासों) द्वारा ढेले फेंकते और कभी बाँसुरी बजाते थे । कुछ ग्वाल-बाल अपने मुखसे करधनीके घुँघुरुओंकी-सी ध्वनि करते हुए दौड़ते और उनके साथ वे दोनों बन्धु - राम और श्याम भी पक्षियोंकी छायाका अनुसरण करते भागते हुए सुशोभित होते थे। सिरपर मयूरपिच्छ लगाकर फूलों और पल्लवोंके शृङ्गार धारण करते थे । १५ – १७॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥
स वा आङ्‌गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥
विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।
केन वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४० ॥
निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
    स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो बतांहो महदद्य ते कृतं
    अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१ ॥
न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं
    सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता
    विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२ ॥
अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि
    रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति
    अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात् ॥ ४३ ॥
तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं
    यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
    पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४ ॥
तदाऽऽर्यधर्मः प्रविलीयते नृणां
    वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
    शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५ ॥

इसके बाद वह बालक (शमीक मुनिका पुत्र) अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ॥ ३८ ॥ विप्रवर शौनकजी ! शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ॥ ३९ ॥ उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा—‘बेटा ! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ॥ ४० ॥ ब्रह्मर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित्‌ शापके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा—‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया ! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ ४१ ॥ तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ॥ ४२ ॥ जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान्‌ पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ ४३ ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं ॥ ४४ ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार- युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...