बुधवार, 14 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना


श्रीभगवानुवाच –

हे गोप्यः पुष्करद्वीपे हंसो नाम महामुनिः ।
समुद्रे दधिमंडोदे ततापान्तर्गतस्तपः ॥ १७ ॥
चकाराहैतुकीं भक्तिं मम ध्यानपरायणः ।
व्यतीतं तस्य तपतो गोप्यो मन्वन्तरद्वयम् ॥ १८ ॥
तमद्यैवाग्रसन्मत्स्यो योजनार्धवपुर्धरः ।
तन्निर्जगार पौंड्रस्तु मत्स्यरूपधरोऽसुरः ॥ १९ ॥
एवं संप्राप्तकष्टस्य हंसस्यापि मुनेरहम् ।
गत्वाऽथ शीघ्रेण तयोः शिरश्छित्वाऽरिणा मुनिम् ॥ २० ॥
मोचयित्वाऽथ गतवान् श्वेतद्वीपे व्रजांगनाः ।
क्षीराब्धौ शेषपर्यंके शयनं तु मया कृतम् ॥ २१ ॥
दुःखिता भवतीर्ज्ञात्वा निद्रां त्यक्त्वा ततः प्रियाः ।
सहसा भक्तवश्योऽहं पुनरागतवानिह ॥ २२ ॥
जानन्ति सन्तः समदर्शोनि ये
     दान्ता महान्तः किल नैरपेक्ष्याः ।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
     ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन् ॥ २३ ॥


गोप्य ऊचुः -
क्षीराब्दौ शेषपर्यंके यद्‌रूपं च त्वया धृतम् ।
तद्‌रूपदर्शनं देहि यदि प्रीतोऽसि माधव ॥ २४ ॥


श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
दधाराष्टभुजं रूपं श्रीराधारूपमेव च ॥ २५ ॥
तत्र क्षीरसमुद्रोऽभूल्लोलकल्लोलमण्डितः ।
दिव्यानि रत्‍नसौधानि बभूवुर्मंगलानि च ॥ २६ ॥
तत्र शेषो बिसश्वेतः कुण्डलीभूतसंस्थितः ।
बालार्कमौलिसाहस्रफणाच्छत्रविराजितः ॥ २७ ॥
तस्मिन् वै शेषपर्यङ्के सुखं सुष्वाप माधवः ।
तस्य श्रीरूपिणी राधा पादसेवां चकार ह ॥ २८ ॥
तद्‌रूपं सुंदरं दृष्ट्वा कोटिमार्तण्डसन्निभम् ।
नत्वा गोपीगणाः सर्वे विस्मयं परमं गताः ॥ २९ ॥
गोपीभ्यो दर्शनं दत्तं यत्र कृष्णेन मैथिल ।
तत्र क्षेत्रं महापुण्यं जातं पापप्रणाशनम् ॥ ३० ॥

 

श्रीभगवान् बोले- गोपाङ्गनाओ ! पुष्करद्वीप के दधिमण्डोद समुद्र के भीतर रहकर 'हंस' नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु या कामना के भजन करते थे । उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला एक मत्स्य निगल गया था । फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया ॥ १७-१९

इस प्रकार कष्टमें पड़े हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्योंका वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय, समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते हैं । ॥ २० – २३ ॥

गोपियोंने कहा- माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था, उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा लक्ष्मीरूपा हो गयीं । वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओं से मण्डित क्षीरसागर प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्र फनोंके छत्रसे सुशोभित थे । उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं । करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन गया ।। २५–३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



मंगलवार, 13 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना

 

चंद्रं प्रतप्तकिरणज्वलनं प्रसन्नं
     सर्वं वनांतमसिपत्रवनप्रवेशम् ।
बाणं प्रभंजनमतीव सुमन्दयानं
     मन्यामहे किल भवन्तमृते व्यथार्ताः ॥ ८ ॥
सौदासराजमहिषीविरहादतीव
     जातं सहस्रगुणितं नलपट्टराज्ञ्याः ।
तस्मात्तु कोटिगुणितं जनकात्मजायाः
     तस्मादनंतमतिदुःखमलं हरे नः ॥ ९ ॥

श्रीनारद उवाच -
इत्थं राज रुदन्तीनां गोपीनां कमलेक्षणः ।
आविर्बभूव सहसा स्वयमर्थमिवात्मनः ॥ १० ॥
स्फुरत्किरीटकेयूर कुंडलांगदभूषणम् ।
स्निग्धामलसुगन्धाढ्यनीलकुंचितकुंतलम् ॥ ११ ॥
आगतं वीक्ष्य युगपत् समुत्तस्थुर्व्रजांगनाः ।
तन्मात्राणि च यं दृष्ट्वा यथा ज्ञानेंद्रियाणि च ॥ १२ ॥
हरिर्ननर्त तन्मध्ये वंशीवादनतत्परः ।
राधया सहितो राजन् यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १३ ॥
यावतीर्गोपिकाः सर्वास्तावद्‌रूपधरो हरिः ।
गच्छन् ताभिर्व्रजे रेमे स्वावस्थाभिर्मनो यथा ॥ १४ ॥
वनोद्देशे स्थितं कृष्णं गतदुःखा व्रजांगनाः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गिरा गद्‌गदया हरिम् ॥ १५ ॥

 

गोप्य ऊचुः -
क्व गतस्त्वं वद हरे त्यक्त्वा गोपीगणो महान् ।
सर्वं जगत्तृणीकृत्य त्वत्पादे प्राप्तमानसम् ॥ १६ ॥

 

प्राणनाथ ! तुम्हारे बिना वियोग-व्यथासे पीड़ित हुई हम सब गोपियोंको चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंके समान दाहक प्रतीत होता है । यह सम्पूर्ण वनान्त-भाग जो पहले प्रसन्नताका केन्द्र था, अब इसमें आनेपर ऐसा जान पड़ता है, मानो हमलोग असिपत्रवन में प्रविष्ट हो गयी हैं और अत्यन्त मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे ! राजा सौदासकी रानी मदयन्तीको अपने पतिके विरहसे जो दुःख हुआ था, उससे हजारगुना दुःख नलकी महारानी दमयन्तीको पति वियोगके कारण प्राप्त हुआ था । उनसे भी कोटिगुना अधिक दुःख पतिविरहिणी जनकनन्दिनी सीताको हुआ था और उनसे भी अनन्तगुना अधिक दुःख आज हम सबको हो रहा है  - ९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार रोती हुई गोपाङ्गनाओंके बीच में कमलनयन श्रीकृष्ण सहसा प्रकट हो गये, मानो अपना अभीष्ट मनोरथ स्वयं आकर मिल गया हो। उनके मस्तकपर किरीट, भुजाओंमें केयूर और अङ्गद तथा कानोंमें कुण्डल नामक भूषण अपनी दीप्ति फैला रहे थे। स्निग्ध, निर्मल, सुगन्धपूर्ण, नीले, घुँघराले केश-कलाप मनको मोहे लेते थे ॥ १०-११

उन्हें आया हुआ देख समस्त व्रजाङ्गनाएँ एक साथ उठकर खड़ी हो गयीं, जैसे शब्दादि सूक्ष्म- भूतोंके समूहको देखकर ज्ञानेन्द्रियाँ सहसा सचेष्ट हो जाती हैं। राजन् ! उन गोपसुन्दरियोंके मध्यभागमें राधाके साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए इस प्रकार नृत्य करने लगे, मानो रतिके साथ मूर्तिमान् काम नाच रहा हो। जितनी संख्यामें समस्त गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके श्रीहरि उनके साथ व्रजमें रास-विहार करने लगे-ठीक उसी तरह, जैसे जाग्रत् आदि अवस्थाओं के साथ मन क्रीड़ा कर रहा हो। उस समय उस वनप्रदेश में दुःखरहित हुई व्रजाङ्गनाएँ वहाँ खड़े हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से हाथ जोड़ गद्गद वाणी में बोलीं ॥। १ - १५ ॥

गोपियोंने पूछा – श्यामसुन्दर ! जो सारे जगत्- को तिनकेकी भाँति त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अपना तन, मन और प्राण अर्पित कर चुकी हैं, उन्हीं इन गोपियोंके इस महान् समुदायको छोड़कर तुम कहाँ चले गये थे ? । ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



सोमवार, 12 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना

 

श्रीनारद उवाच -
अथ कृष्णगुणान् रम्यान् समेताः सर्वयोषितः ।
जगुस्तालस्वरैः रम्यैः कृष्णागमनहेतवे ॥ १ ॥


गोप्य ऊचुः -
लोकाभिराम जनभूषण विश्वदीप
     कंदर्पमोहन जगद्‌वृजिनार्तिहारिन् ।
आनंदकंद यदुनंदन नंदसूनो
     स्वच्छन्दपद्ममकरंद नमो नमस्ते ॥ २ ॥
गोविप्रसाधुविजयध्वज देववंद्य
     कंसादिदैत्यवधहेतुकृतावतार ।
श्रीनंदराजकुलपद्मदिनेश देव
     देवादिमुक्तजनदर्पण ते जयोऽस्तु ॥ ३ ॥
गोपालसिंधुपरमौक्तिक रूपधारिन्
     गोपालवंशगिरिनीलमणे परात्मन् ।
गोपालमंडलसरोवरकञ्जमूर्ते
     गोपालचन्दनवने कलहंसमुख्य ॥ ४ ॥
श्रीराधिकावदनपंकज षट्पदस्त्वं
     श्रीराधिकावदनचंद्रचकोररूपः ।
श्रीराधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहार
     श्रीराधिकामधुलताकुसुमाकरोऽसि ॥ ५ ॥
यो रासरंगनिजवैभवभूरिलीला
     यो गोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
मानं चकार रहसा किल मानवत्यां
     सोऽयं हरिर्भवतु नो नयनाग्रगामी ॥ ६ ॥
यो गोपिकासकलयूथमलंचकार
     वृंदावनं च निजपादरजोभिरद्रिम् ।
यः सर्वलोकविभवाय बभूव भूमौ
     तं भूरिलीलमुरगेंद्रभुजं भजामः ॥ ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्णके शुभागमनके लिये समस्त व्रजाङ्गनाएँ मिलकर सुरम्य तालस्वरके साथ उन श्रीहरिके रमणीय गुणोंका गान करने लगीं ॥ १ ॥

गोपियाँ बोलीं- लोकसुन्दर! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! तथा जगत् की पापराशि एवं पीड़ा हर लेनेवाले ! आनन्दकन्द यदुनन्दन ! नन्दनन्दन ! तुम्हारे चरणारविन्दोंका मकरन्द भी परम स्वच्छन्द है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है। गौओं, ब्राह्मणों और साधु-संतों के विजयध्वजरूप ! देववन्द्य तथा कंसादि दैत्योंके वध के लिये अवतार धारण करनेवाले !

श्रीनन्दराज - कुल-कमल- दिवाकर! देवाधिदेवोंके भी आदिकारण ! मुक्त- जनदर्पण ! तुम्हारी जय हो । गोपवंशरूपी सागरमें परम उज्ज्वल मोतीके समान रूप धारण करने वाले ! गोपालकुलरूपी गिरिराजके नीलरत्न ! परमात्मन् ! गोपालमण्डलरूपी सरोवरके प्रफुल्ल कमल ! तथा गोपवृन्दरूपी चन्दनवनके प्रधान कलहंस ! तुम्हारी जय हो । प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम श्रीराधिका के मुखारविन्द का मकरन्द पान करनेवाले मधुप हो; श्रीराधाके मुखचन्द्रकी सुधामयी चन्द्रिका के आस्वादक चकोर हो; श्रीराधाके वक्षःस्थलपर विद्योतमान चन्द्रहार हो तथा श्रीराधिकारूपिणी माधवीलताके लिये कुसुमाकर (ऋतुराज वसन्त) हो ॥ २-५

जो रास-रङ्गस्थलीमें अपने वैभव (लीला- शक्ति) से भूरि-भूरि लीलाएँ प्रकट करते हैं, जो गोपाङ्गनाओंके नेत्रों और जीवनके मूलाधार एवं हारस्वरूप हैं तथा श्रीराधाके मान करनेपर जिन्होंने स्वयं मान कर लिया है, वे श्यामसुन्दर श्रीहरि हमारे नेत्रोंके समक्ष प्रकट हों । जिन्होंने गोपिकाओंके समस्त यूथोंको, श्रीवृन्दावनकी भूमिको तथा गिरिराज गोंवर्धनको अपनी चरण धूलिसे अलंकृत किया है; जो सम्पूर्ण जगत्के उद्भव तथा पालनके लिये भूतलपर प्रकट हुए हैं; जिनकी कान्ति अत्यन्त श्याम है और भुजाएँ नागराजके शरीरको भाँति सुशोभित होती हैं, उन नन्दनन्दन माधवकी हम आराधना करती हैं ॥ ६-७

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

अव्यक्त रससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ॥ १० ॥
धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्याऽऽत्मा परायणम् ॥ ११ ॥
अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः ।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ॥ १२ ॥
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः ।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः ॥ १३ ॥
अन्ये च विविधा जीवाः जल स्थल नभौकसः ।
ग्रह ऋक्ष केतवस्ताराः तडितः स्तनयित्‍नवः ॥ १४ ॥
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदं आवृतं विश्वं वितस्तिं अधितिष्ठति ॥ १५ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  उनके (विराट् पुरुष के ) उदरमें मूल प्रकृति, रस नामकी धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मनकी जन्मभूमि है ॥ १० ॥ नारद ! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शङ्कर, विज्ञान और अन्त:करण—सब-के-सब उनके चित्तके आश्रित हैं ॥ ११ ॥ (कहाँतक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शङ्कर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और भी नाना प्रकारके जीव—जो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैं—ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे), तारे, बिजली और बादल—ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व—जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके [*] परिमाणमें ही स्थित है ॥ १२—१५ ॥ 
........................................................................
 [*] ब्रह्माण्डके सात आवरणोंका वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि—पृथ्वीसे दसगुना जल है, जलसे दसगुना अग्रि, अग्रिसे दसगुना वायु, वायुसे दसगुना आकाश, आकाशसे दसगुना अहंकार, अहंकारसे दसगुना महत्तत्त्व और महत्तत्त्वसे दसगुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान्‌के केवल एक पादमें है। इस प्रकार भगवान्‌की महत्ता प्रकट की गयी है। यह दशाङ्गुलन्याय कहलाता है।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 11 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

राधोवाच -
चलितुं न समर्थाऽहं मन्दिरान्ना विनिर्गता ।
सुकुमारी स्वेदयुक्ता कथं मां नयसि प्रिय ॥ ३१ ॥


नारच उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ।
पीतांबरेण दिव्येन वायुं तस्यै चकार ह ॥ ३२ ॥
हस्तं गृहीत्वा तामाह गच्छ राधे यथासुखम् ।
कृष्णेनापि तदा प्रोक्ता न ययौ तेन वै पुनः ॥ ३३ ॥
पृष्ठं दत्त्वाऽथ हरये तूष्णींभूता स्थिता पुनः ।
प्रियां मानवतीं राधां प्राह कृष्णः सतां प्रियः ॥ ३४ ॥


श्रीभगवानुवाच -
विहाय गोपीरिह कामयाना
     भजाम्यहं मानिनि चेतसा त्वाम् ।
यत्ते प्रियं तत्प्रकरोमि राधे
     मे स्कंधमारुह्य सुखं व्रजाशु ॥ ३५ ॥


श्रीनारद उवाच -
एवं प्रियां प्रियतमः स्कंधयानेप्सितां नृप ।
विहायान्तर्दधे कृष्णो स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ ३६ ॥
गतमाना कीर्तिसुता भगवद्‌विरहातुरा ।
उच्चै रुरोद राजेन्द्र कोकिलाख्ये वने परे ॥ ३७ ॥
तदैव यूथाः संप्राप्ता गोपीनां मैथिलेश्वर ।
तद् रोदनं दुःखतरं श्रुत्वा जग्मुस्त्रपातुराः ॥ ३८ ॥
काश्चित्तां मकरंदैश्च स्नापयांचक्रुरीश्वरीम् ।
चंदनागुरु कस्तूरी कुङ्कुमद्रवसीकरैः ॥ ३९ ॥
वायुं चक्रुस्तदंगेषु व्यजनान्दोलचामरैः ।
आश्वास्य वाग्भिः परमां नानाऽनुनयकोविदैः ॥ ४० ॥
तन्मुखान्मानिनो मानं श्रुत्वा कृष्णस्य गोपिकाः ।
मानवंत्यो मैथिलेन्द्र विस्मयं परमं ययुः ॥ ४१ ॥

 

श्रीराधाने कहा- प्यारे ! मैं कभी राजभवनसे बाहर नहीं निकली थी, किंतु आज अधिक चलना पड़ा है; अतः अब एक पग भी चलनेमें समर्थ नहीं हूँ। देखते नहीं, मैं सुकुमारी राजकुमारी पसीना पसीना हो गयी हूँ ? फिर मुझे कैसे ले चलोगे ? ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- यह वचन सुनकर राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण श्रीराधाके ऊपर अपने दिव्य पीताम्बरसे हवा करने लगे। फिर उनका हाथ थामकर बोले- 'श्रीराधे ! अब तुम अपनी मौजसे धीरे-धीरे चलो।' उस समय श्रीकृष्णके बारंबार कहनेपर भी श्रीराधाने अपना पैर आगे नहीं बढ़ाया। वे श्रीहरिकी ओर पीठ करके चुपचाप खड़ी रहीं। तब संतोंके प्रिय श्रीकृष्णने मानिनी प्रिया राधासे कहा ॥ ३२ – ३४ ॥

श्रीभगवान् बोले—मानिनि ! यहाँ अन्य गोपियाँ भी मुझसे मिलनेकी हार्दिक कामना रखती हैं, तथापि उन्हें छोड़कर मैं मनसे तुम्हारी आराधना करता हूँ; तुम्हें जो प्रिय हो, वहीं करता हूँ । राधे ! मेरे कंधेपर चढ़कर तुम सुखपूर्वक शीघ्र यहाँसे चलो ॥ ३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! उनके यों कहने- पर प्रियाने जब उनके कंधेपर चढ़ना चाहा, तभी स्वच्छन्द गतिवाले ईश्वर प्रियतम श्रीकृष्ण वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजेन्द्र ! फिर तो कीर्तिकुमारी राधाका मान उतर गया। वे उस महान् कोकिलावनमें भगवद्-विरहसे व्याकुल हो उच्चस्वरसे रोदन करने लगीं ॥। ३६-३७ ।।

मिथिलेश्वर ! उसी समय गोपियोंके यूथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराधाका अत्यन्त दुःखजनक रोदन सुनकर उन्हें बड़ी दया और लज्जा आयी। कोई अपनी स्वामिनीको पुष्प- मकरन्दों (इत्र आदि) से नहलाने लगीं; कुछ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर से मिश्रित जल के छींटे देने लगीं || कुछ व्यजन और चंवर डुलाकर अङ्गों में हवा देने लगीं तथा अनुनय-विनय में कुशल नाना वचनों द्वारा परादेवी श्रीराधा को धीरज बँधाने लगीं। मैथिलेन्द्र ! श्रीराधा के मुख से मानी श्रीकृष्णके द्वारा दिये गये सम्मान की बात सुनकर मानवती गोपाङ्गनाओं को बड़ा विस्मय हुआ ।। ३८-४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्व मेधस्य चैव हि ।
रोमाणि उद्‌भिज्ज जातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः ॥ ४ ॥
केश श्मश्रु नखान्यस्य शिलालोहाभ्र विद्युताम् ।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ॥ ५ ॥
विक्रमो भूर्भुवःस्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकाम वरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥ ६ ॥
अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द निर्वृतेः ॥ ७ ॥
पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।
हिंसाया निर्‌ऋतेर्मृत्यो निरयस्य गुदः स्मृतः ॥ ८ ॥
पराभूतेः अधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः ।
नाड्यो नदनदीनां च गोत्राणां अस्थिसंहतिः ॥ ९ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी (विराट् पुरुष की) त्वचासे निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थोंके जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हींके, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥ ४ ॥ उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखोंसे मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओंसे प्राय: संसारकी रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥ उनका चलना-फिरना भू:, भुव:, स्व:—तीनों लोकोंका आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्तकी रक्षा करते हैं और भयोंको भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति उन्हींसे होती है ॥ ६ ॥ विराट् पुरुषका लिङ्ग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है ॥ ७ ॥ नारद जी ! विराट् पुरुष की पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्यागका तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरकका उत्पत्तिस्थान है ॥ ८ ॥ उनकी पीठसे पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाडिय़ोंसे नद-नदी और हड्डियोंसे पर्वतोंका निर्माण हुआ है ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 10 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
राधेशो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
प्रियायाः कबरीपुष्परचनां स चकार ह ॥ १७ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रीकृष्णो राधया सार्धं संकेतवटमाविशत् ।
चित्रपत्रावलीः कृष्ण पूर्णेन्दुमुखमंडले ॥ १९ ॥
एवं कृष्णो भद्रवनं खदिराणां वनं महत् ।
बिल्वानां च वनं पश्यन् कोकिलाख्यं वनं गतः ॥ २० ॥
गोप्यः कृष्णं विचिन्वन्त्यो ददृशुस्तत्पदानि च ।
यवचक्रध्वजच्छत्रैः स्वस्तिकाङ्कुशबिन्दुभिः ॥ २१ ॥
अष्टकोणेन वज्रेण पद्मेनाभियुतानि च ।
नीलशङ्खघटैर्मत्स्यत्रिकोणेषूर्ध्वधारकैः ॥ २२ ॥
धनुर्गोखुरचन्द्रार्द्धशोभितानि महात्मनः ।
तत्पदान्यनुसारेण व्रजन्त्यो गोपिकास्ततः ॥ २३ ॥
तद्‌रजः सततं नीत्वा धृत्वा मूर्ध्नि व्रजांगनाः ।
पदान्यन्यानि ददृशुरन्यचिह्नान्वितानि च ॥ २४ ॥
केतुपद्मातपत्रैश्च यवेनाथोर्ध्वरेखया ।
चक्रचंद्रार्धांकुशकैर्बिंदुभिः शोभितानि च ॥ २५ ॥
लवंगलतिकाभिश्च विचित्राणि विदेहराट् ।
गदापाठीनशंखैश्च गिरिराजेन शक्तिभिः ॥ २६ ॥
सिंहासनरथाभ्यां च बिंदुद्वययुतानि च ।
वीक्ष्य प्राहू राधिकया गतोऽसौ नंदनंदनः ॥ २७ ॥
पश्यत्यस्तत्पादपद्मं कोकिलाख्यं वनं गताः ।
गोपीकोलाहलं श्रुत्वा राधिकां प्राह माधवः ॥ २८ ॥
कोटिचंद्रप्रतीकाशे राधे सर्प त्वरं प्रिये ।
आगता गोपिकाः सर्वास्त्वां नेष्यन्ति हि सर्वतः ॥ २९ ॥
तदा मानवती राधा भूत्वा प्राह रमापतिम् ।
रूपयौवनकौशल्यशीलगर्वसमन्विता ॥ ३० ॥

बहुलाश्वने पूछा - प्रभो ! राधावल्लभ श्याम सुन्दर अन्य गोपियोंको छोड़कर श्रीराधिकाके साथ कहाँ चले गये ? फिर गोपियोंको उनका दर्शन कैसे हुआ ? ।। १७ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधिकाके साथ संकेतवटके नीचे चले गये और वहाँ प्रियतमा श्रीराधाके केशपाशों की वेणीमें पुष्परचना करने लगे। श्रीकृष्णके नीले केशोंमें श्रीराधिका ने वक्रता स्थापित की अर्थात् अपने केशरचना - कौशलसे उनके केशोंको घुँघराला बना दिया और उनके पूर्ण चन्द्रोपम मुखमण्डलमें उन्होंने विचित्र पत्रावलीकी रचना की ।। १८-१९ ।।

इस प्रकार परस्पर शृङ्गार करके श्रीकृष्ण प्रियाके साथ भद्रवन, महान् खदिरवन, बिल्ववन और कोकिलावनमें गये। उधर श्रीकृष्णको खोजती हुई गोपियोंने उनके चरणचिह्न देखे। जौ, चक्र, ध्वजा, छत्र, स्वस्तिक, अङ्कुश, बिन्दु, अष्टकोण, वज्र, कमल, नीलशङ्ख, घट, मत्स्य, त्रिकोण, बाण, ऊर्ध्वरेखा, धनुष, गोखुर और अर्धचन्द्रके चिह्नोंसे सुशोभित महात्मा श्रीकृष्ण के पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई गोपाङ्गनाएँ उन चिह्नों की धूलि ले-लेकर अपने मस्तकपर रखतीं और आगे बढ़ती जाती थीं। फिर उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों के साथ-साथ दूसरे पदचिह्न भी देखे । वे ध्वजा, पद्म, छत्र, जौ, ऊर्ध्वरेखा, चक्र, अर्धचन्द्र, अङ्कुश और बिन्दुओंसे शोभित थे। विदेहराज ! लवङ्गलता, गदा, पाठीन (मत्स्य), शङ्ख, गिरिराज, शक्ति, सिंहासन, रथ और दो बिन्दुओंके चिह्नोंसे विचित्र शोभाशाली उन चरणचिह्नों को देखकर गोपियाँ परस्पर कहने लगीं- 'निश्चय ही नन्दनन्दन श्रीराधिका को साथ लेकर गये हैं ।' श्रीकृष्ण-चरण- अरविन्दों के चिह्न निहारती हुई गोपियाँ कोकिलावन में जा पहुँचीं ॥ २०-२७ ॥

उन गोपाङ्गनाओंका कोलाहल सुनकर माधव ने श्रीराधासे कहा 'कोटि चन्द्रमाओंको अपने सौन्दर्यसे तिरस्कृत करनेवाली प्रिये श्रीराधे ! सब ओरसे गोपिकाएँ आ पहुँचीं। अब वे तुम्हें अपने साथ ले जायँगी । अतः यहाँसे जल्दी निकल चलो।' उस समय रूप, यौवन, कौशल्य (चातुरी) और शीलके गर्वसे गरबीली मानवती राधा रमापतिसे बोलीं ॥ २८-३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

ब्रह्मोवाच ।

वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ।
हव्यकव्यामृत अन्नानां जिह्वा सर्व रसस्य च ॥ १ ॥
सर्वा असूनां च वायोश्च तत् नासे परमायणे ।
अश्विनोः ओषधीनां च घ्राणो मोद प्रमोदयोः ॥ २ ॥
रूपाणां तेजसां चक्षुः दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रं आकाश शब्दयोः ।
तद्‍गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ॥ ३ ॥

ब्रह्माजी कहते हैं—उन्हीं विराट् पुरुष के मुखसे वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द [*] उनकी सात धातुओंसे निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओंके भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकारके रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुषकी जिह्वासे उत्पन्न हुए हैं ॥ १ ॥ उनके नासाछिद्रोंसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान—ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रियसे अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥ २ ॥ उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेजकी तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्यकी जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानोंसे तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसारकी सभी वस्तुओंके सारभाग तथा सौन्दर्यका खजाना है ॥ ३ ॥ 

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[*] गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगती—ये सात छन्द हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

गोपाङ्गनाओं के साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियों को छोड़कर श्रीराधा के साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

 

श्रीनारद उवाच -
इत्थं कुंदवने रम्ये मालतीनां वने शुभे ।
आम्राणां नागरंगाणां निंबूनां सघने वने ॥ १ ॥
दाडिमीनां च द्राक्षाणां बदामानां वने नृप ।
कदम्बानां श्रीफलानां कुटजानां तथैव च ॥ २ ॥
वटानां पनसानां च पिप्पलानां वने शुभे ।
तुलसीकोविदाराणां केतकीकदलीवने ॥ ३ ॥
करिल्लकुञ्जबकुलमन्दाराणां वने हरिः ।
चरन्कामवनं प्रागाद्‌राजन् व्रजवधूवृतः ॥ ४ ॥
तत्रैव पर्वते कृष्णो ननाद मुरली कलम् ।
मूर्च्छिता विह्वला जातास्तन्नादेन व्रजांगनाः ॥ ५ ॥
मनोजबाणभिन्नांगाः श्लथन्नीव्यः सुरैः सह ।
कश्मलं प्रययू राजन् विमानेष्वमरांगनाः ॥ ६ ॥
चतुर्विधा जीवसंघाः स्थावरैर्मोहमास्थिताः ।
नद्यो नदाः स्थिरीभूताः पर्वता द्रवतां गताः ॥ ७ ॥
तत्पादचिह्नसंयुक्तो गिरिः कामवनेऽभवत् ।
तस्य दर्शनमात्रेण नरो याति कृतार्थताम् ॥ ८ ॥
अथ गोपीगणैः साकं श्रीकृष्णो राधिकापतिः ।
नंदीश्वरबृहत्सानुतटे रासं चकार ह ।
तत्र गोप्योऽतिमानिन्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ।
तास्त्यक्त्वा राधया सार्धं तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ १० ॥
गोप्यश्च सर्वा विरहातुरा भृशं
     कृष्णं विना मैथिल निर्जने वने ।
ता बभ्रमुश्चाश्रुकलाकुलाक्ष्यो
     यथा हरिण्यश्चकिता इतस्ततः ॥ ११ ॥
कृष्णं ह्यपश्यन्त्य इति व्यथां गता
     यथा करिण्यः करिणं वने वने ।
यथा कुरर्यः कुररं व्रजांगनाः
     सर्वा रुदन्त्यो विरहातुरा भृशम् ॥ १२ ॥
उन्मत्तवद्‌वृक्षलताकदम्बकं
     सर्वा मिलित्वा च पृथग्वने वने ।
पप्रच्छुरारान्नृप नंदनंदनं
     कुत्र स्थितं तं वदताशु भूरुहाः ॥ १३ ॥
श्रीकृष्ण कृष्णेति गिरा वदन्त्यः
     श्रीकृष्णपादांबुजलग्नमानसाः ।
श्रीकृष्णरूपास्तु बभूवुरंगनाः
     चित्रं न पेशस्कृतमेत्य कीटवत् ॥ १४ ॥
श्रीपादुकाधःस्थलगोपिगोप्यः
     श्रीपादुकाब्जं शरनं प्रपन्नाः ॥ १५ ॥
ततस्तु तत्प्रसादेन तत्पदार्चनदर्शनात् ।
ददृशुर्गां तदा गोप्यो भगवत्पाद चिह्निताम् ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! इस प्रकार रमणीय कुमुदवनमें मालती पुष्पोंके सुन्दर वनमें; आम, नारंगी तथा नींबुओंके सघन उपवनमें: अनार, दाख और बादामोंके विपिनमें; कदम्ब, श्रीफल (बेल) और कुटजोंके काननमें; बरगद, कटहल और पीपलों- के सुन्दर वनमें; तुलसी, कोविदार, केतकी, कदली, करील-कुञ्ज, बकुल (मौलिश्री) तथा मन्दारोंके मनोहर विपिनमें विचरते हुए श्यामसुन्दर व्रज- वधूटियोंके साथ कामवनमें जा पहुँचे ॥ १-४ ॥

वहीं एक पर्वतपर श्रीकृष्णने मधुर स्वरमें बाँसुरी बजायी। उसकी मोहक तान सुनकर व्रजसुन्दरियाँ मूच्छित और विह्वल हो गयीं। राजन् ! आकाशमें देवताओंके साथ विमानोंपर बैठी हुई देवाङ्गनाएँ भी मोहित हो गयीं। कामदेवके बाणोंसे उनके अङ्ग अङ्ग बिंध गये तथा उनके नीबी-बन्ध ढीले होकर खिसकने लगे। स्थावरोंसहित चारों प्रकारके जीवसमुदाय मोहको प्राप्त हो गये, नदियों और नदोंका पानी स्थिर हो गया तथा पर्वत भी पिघलने लगे। कामवनकी पहाड़ी श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंसे युक्त हो गयी, जिसे 'चरण-पहाड़ी' कहते हैं। उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । ५-८ ॥

तदनन्तर राधावल्लभ श्रीकृष्ण ने नन्दीश्वर तथा बृहत्सानुगिरियों के तट प्रान्त में रास - विलास किया। मिथिलेश्वर ! वहाँ गोपियोंको अपने सौभाग्य पर बड़ा अभिमान हो गया, तब श्रीहरि उन सबको वहीं छोड़ श्रीराधाके साथ अदृश्य हो गये। मिथिलानरेश ! उस निर्जन वनमें श्रीकृष्णके बिना समस्त गोपाङ्गनाएँ विरह की आगमें जलने लगीं। उनके नेत्र आँसुओं से भर गये और वे चकित हिरनियों की भाँति इधर-उधर भटकने लगीं ९-११

जैसे वन में हाथी के बिना हथिनियाँ और कुरर के बिना कुररियाँ व्यथित होकर करुण क्रन्दन करती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को न देखकर व्यथित तथा विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो ब्रजाङ्गनाएँ फूट- फूटकर रोने लगीं। राजन् ! नरेश्वर ! वे सब की - सब एक साथ मिलकर तथा पृथक्-पृथक् दल बनाकर वन-वनमें जातीं और उन्मत्तकी तरह वृक्षों तथा लता- समूहोंसे पूछतीं— 'तरुओ तथा वल्लरियो ! शीघ्र बताओ, हमारे प्यारे नन्दनन्दन कहाँ जा छिपे हैं ?' ॥१२-१३

अपनी वाणीसे 'श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण !' कहकर पुकारती थीं। उनका चित्त श्रीकृष्णचरणारविन्दों में ही लगा हुआ था। अतः वे सब अङ्गनाएँ श्रीकृष्णस्वरूपा हो गयीं ठीक उसी तरह जैसे भृङ्गके द्वारा बंद किया हुआ कीड़ा उसी के चिन्तन से भृङ्गरूप हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । श्रीकृष्ण की चरणपादुका से चिह्नित स्थानपर पहुँचकर गोपियाँ श्रीपादुकाब्ज की शरण में गयीं । तदनन्तर भगवान्‌ की ही कृपासे उनके चरणचिह्नके अर्चन और दर्शनसे गोपियों को भगवच्चरणचिह्नों से अलंकृत भूमिका विशेषरूपसे दर्शन होने लगा ॥१४-१६

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

सृष्टि-वर्णन

पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्‍भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत ॥ ३७ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ३८ ॥
ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ३९ ॥
तत्कट्यां चातलं कॢप्तं ऊरूभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ४० ॥
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ४१ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ४२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) ब्राह्मण इस विराट् पुरुषका मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ ३७ ॥ पैंरोंसे लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोककी कल्पना की गयी है; नाभिमें भुवर्लोककी, हृदयमें स्वर्लोककी और परमात्माके वक्ष:स्थलमें महर्लोककी कल्पना की गयी है ॥ ३८ ॥ उसके गलेमें जनलोक, दोनों स्तनोंमें तपोलोक और मस्तकमें ब्रह्माका नित्य निवासस्थान सत्यलोक है ॥ ३९ ॥ उस विराट् पुरुषकी कमरमें अतल, जाँघोंमें वितल, घुटनोंमें पवित्र सुतललोक और जङ्घाओंमें तलातलकी कल्पना की गयी है ॥ ४० ॥ एड़ी के ऊपरकी गाँठोंमें महातल, पंजे और एडिय़ों में रसातल और तलुओंमें पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है ॥ ४१ ॥ विराट् भगवान्‌के अङ्गोंमें इस प्रकार भी लोकोंकी कल्पना की जाती है कि उनके चरणोंमें पृथ्वी है, नाभिमें भुवर्लोक है और सिरमें स्वर्लोक है ॥ ४२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न  और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...