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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका
स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके
उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन
कराना
श्रीभगवानुवाच –
हे गोप्यः
पुष्करद्वीपे हंसो नाम महामुनिः ।
समुद्रे दधिमंडोदे ततापान्तर्गतस्तपः ॥ १७ ॥
चकाराहैतुकीं भक्तिं मम ध्यानपरायणः ।
व्यतीतं तस्य तपतो गोप्यो मन्वन्तरद्वयम् ॥ १८ ॥
तमद्यैवाग्रसन्मत्स्यो योजनार्धवपुर्धरः ।
तन्निर्जगार पौंड्रस्तु मत्स्यरूपधरोऽसुरः ॥ १९ ॥
एवं संप्राप्तकष्टस्य हंसस्यापि मुनेरहम् ।
गत्वाऽथ शीघ्रेण तयोः शिरश्छित्वाऽरिणा मुनिम् ॥ २० ॥
मोचयित्वाऽथ गतवान् श्वेतद्वीपे व्रजांगनाः ।
क्षीराब्धौ शेषपर्यंके शयनं तु मया कृतम् ॥ २१ ॥
दुःखिता भवतीर्ज्ञात्वा निद्रां त्यक्त्वा ततः प्रियाः ।
सहसा भक्तवश्योऽहं पुनरागतवानिह ॥ २२ ॥
जानन्ति सन्तः समदर्शोनि ये
दान्ता महान्तः किल नैरपेक्ष्याः ।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन् ॥ २३
॥
गोप्य ऊचुः -
क्षीराब्दौ शेषपर्यंके यद्रूपं च त्वया धृतम् ।
तद्रूपदर्शनं देहि यदि प्रीतोऽसि माधव ॥ २४ ॥
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
दधाराष्टभुजं रूपं श्रीराधारूपमेव च ॥ २५ ॥
तत्र क्षीरसमुद्रोऽभूल्लोलकल्लोलमण्डितः ।
दिव्यानि रत्नसौधानि बभूवुर्मंगलानि च ॥ २६ ॥
तत्र शेषो बिसश्वेतः कुण्डलीभूतसंस्थितः ।
बालार्कमौलिसाहस्रफणाच्छत्रविराजितः ॥ २७ ॥
तस्मिन् वै शेषपर्यङ्के सुखं सुष्वाप माधवः ।
तस्य श्रीरूपिणी राधा पादसेवां चकार ह ॥ २८ ॥
तद्रूपं सुंदरं दृष्ट्वा कोटिमार्तण्डसन्निभम् ।
नत्वा गोपीगणाः सर्वे विस्मयं परमं गताः ॥ २९ ॥
गोपीभ्यो दर्शनं दत्तं यत्र कृष्णेन मैथिल ।
तत्र क्षेत्रं महापुण्यं जातं पापप्रणाशनम् ॥ ३० ॥
श्रीभगवान् बोले- गोपाङ्गनाओ
! पुष्करद्वीप के दधिमण्डोद समुद्र के भीतर
रहकर 'हंस' नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु
या कामना के भजन करते थे । उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए
दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला
एक मत्स्य निगल गया था । फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया ॥ १७-१९ ॥
इस प्रकार कष्टमें पड़े
हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्योंका
वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके
भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद
त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय,
समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा
परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते
हैं । ॥ २० – २३ ॥
गोपियोंने
कहा-
माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था,
उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-तब
'तथास्तु' कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा
लक्ष्मीरूपा हो गयीं । वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओं से मण्डित क्षीरसागर
प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश
श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्र फनोंके
छत्रसे सुशोभित थे । उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा
उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं । करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको
देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ
श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन
गया ।। २५–३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से