शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्वं
     अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।
पृच्छेः प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः
     तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
     प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।
अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
     वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥ १८ ॥
इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् परः ।
आदिदेश अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥

(उद्धवजी भगवान् से कह रहे हैं) देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेनेके लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानीसे मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मनको मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥ स्वामिन् ! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दु:खको सुगमतासे पार कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥ जब मैंने इस प्रकार अपने हृदयका भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुझे अपने स्वरूपकी परम स्थितिका उपदेश दिया ॥ १९ ॥ 

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गुरुवार, 7 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः
     प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम् ।
स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तं
     मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥ १४ ॥
को न्वीश ते पादसरोजभाजां
     सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह ।
तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्
     भवत्पदाम्भोज निषेवणोत्सुकः ॥ १५ ॥
कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य
     ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम् ।
कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रयः
     स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥ १६ ॥

(उद्धवजी कहते हैं) विदुरजी ! मुझपर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुषकी कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कहनेसे स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोडक़र उनसे कहा— ॥ १४ ॥ ‘स्वामिन् ! आपके चरण-कमलोंकी सेवा करनेवाले पुरुषोंको इस संसारमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इन चारोंमेंसे कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमेंसे किसीकी इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलोंकी सेवाके लिये ही लालायित रहता हूँ ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप नि:स्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रुके डरसे भागते हैं और द्वारकाके किलेमें जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियोंके साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रोंको देखकर विद्वानोंकी बुद्धि भी चक्करमें पड़ जाती है ॥ १६ ॥ 

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बुधवार, 6 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना

श्रीभगवानुवाच –
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
     ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः ।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
     मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११ ॥
स एष साधो चरमो भवानां
     आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
     दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥
पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
     पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
     यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥

श्रीभगवान्‌ कहने लगे—मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव ! तुम पूर्व-जन्ममें वसु थे। विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओंके यज्ञमें मुझे पानेकी इच्छासे ही तुमने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! संसारमें तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मृत्युलोकको छोडक़र अपने धाममें जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्तमें तुमने अपनी अनन्य भक्तिके कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकालमें पाद्मकल्पके आरम्भमें मैंने अपने नाभि-कमलपर बैठे हुए ब्रह्माको अपनी महिमाके प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥

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मंगलवार, 5 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

अथापि तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम् ।
पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५ ॥
अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम् ।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६ ॥
श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।
दोर्भिश्चतुर्भिः विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ७ ॥
वाम ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्‌घ्रिसरोरुहम् ।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थं अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८ ॥
तस्मिन् महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।
लोकान् अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९ ॥
तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दः
     प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।
आश्रृण्वतो मां अनुरागहास
     समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥ १० ॥

(उद्धवजी कहते हैं) विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका(भगवान का) आशय समझ गया था, तो भी स्वामीके चरणोंका वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभासक्षेत्रमें पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तटपर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्तिसे भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूरसे ही पहचान लिया ॥ ७ ॥ वे एक पीपलके छोटे-से वृक्षका सहारा लिये बायीं जाँघपर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पानका त्याग कर देनेपर भी वे आनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय व्यासजीके प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान्‌ के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभावसे उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरिने प्रेम एवं मुसकानयुक्त चितवनसे मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥

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सोमवार, 4 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

उद्धव उवाच -

अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १ ॥
तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।
निम्लोचति रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥
भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः ।
सरस्वतीं उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३ ॥
अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।
बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४ ॥

उद्धवजीने कहा—फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनोंसे एक दूसरेके हृदयको चोट पहुँचाने लगे ॥ १ ॥ मदिराके नशेसे उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपसकी रगड़से बाँसोंमें आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी ॥ २ ॥ भगवान्‌ अपनी मायाकी उस विचित्र गतिको देखकर सरस्वती के जलसे आचमन करके एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दु:ख दूर करने वाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥ 

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शनिवार, 2 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

पुर्यां कदाचित् क्रीडद्‌भिः यदुभोजकुमारकैः ।
कोपिता मुनयः शेपुः भगवन् मतकोविदाः ॥ २४ ॥
ततः कतिपयैर्मासैः वृष्णिभोज अन्धकादयः ।
ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः ॥ २५ ॥
तत्र स्नात्वा पितॄन् देवान् ऋषींश्चैव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥ २६ ॥
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यानं रथानिभान् कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७ ॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥ २८ ॥

एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान्‌ को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया ॥ २४ ॥ इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्षसे रथोंपर चढक़र प्रभासक्षेत्र को गये ॥ २५ ॥ वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जलसे पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राह्मणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं ॥ २६ ॥ उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणों को दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राह्मणों के लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरों ने पृथ्वीपर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ॥ २७-२८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २० ॥
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्त क्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ २१ ॥
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ २२ ॥
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ २३ ॥

 मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से (भगवान् ने) लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रिमें अपनी प्रियाओं के साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ॥ २०-२१ ॥ इस तरह बहुत वर्षोंतक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियोंसे वैराग्य हो गया ॥ २२ ॥ ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हीं के अधीन है। जब योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे करेगा ? ॥ २३ ॥

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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

उत्तरायां धृतः पूरोः वंशः साध्वभिमन्युना ।
स वै द्रौण्यस्त्रसंछिन्नः पुनर्भगवता धृतः ॥ १७ ॥
अयाजयद् धर्मसुतं अश्वमेधैस्त्रिभिर्विभुः ।
सोऽपि क्ष्मामनुजै रक्षन् रेमे कृष्णमनुव्रतः ॥ १८ ॥
भगवान् अपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुगः ।
कामान् सिषेवे द्वार्वत्यां असक्तः साङ्ख्यमास्थितः ॥ १९ ॥

उत्तरा के उदर में जो अभिमन्यु ने पूरुवंश का बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से नष्ट-सा हो चुका था; किन्तु भगवान्‌ ने उसे बचा लिया ॥ १७ ॥ उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध-यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्ण के अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयोंकी सहायतासे पृथ्वीकी रक्षा करते हुए बड़े आनन्दसे रहने लगे ॥ १८ ॥ विश्वात्मा श्रीभगवान्‌ ने भी द्वारकापुरी में रहकर लोक और वेद की मर्यादा का पालन करते हुए सब प्रकार के भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोग की स्थापना करनेके लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए ॥ १९ ॥

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बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के अन्य लीला-चरित्रों का वर्णन

कियान् भुवोऽयं क्षपितोरुभारो
     यद्द्रोणभीष्मार्जुन भीममूलैः ।
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशैः
     आस्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम् ॥ १४ ॥
मिथो यदैषां भविता विवादो
     मध्वामदाताम्रविलोचनानाम् ।
नैषां वधोपाय इयानतोऽन्यो
     मय्युद्यतेऽन्तर्दधते स्वयं स्म ॥ १५ ॥
एवं सञ्चिन्त्य भगवान् स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम् ।
नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन् ॥ १६ ॥

वे (भगवान्) सोचने लगे—यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेन के द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेना का विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वी का कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्युम्न आदि के बलसे बढ़े हुए यादवों का दु:सह दल बना ही हुआ है ॥ १४ ॥ जब ये मधु-पानसे मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपस में लडऩे लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असल में मेरे संकल्प करने पर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे ॥ १५ ॥ यों सोचकर भगवान्‌ने युधिष्ठिरको अपनी पैतृक राजगद्दीपर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियोंको सत्पुरुषोंका मार्ग दिखाकर आनन्दित किया ॥ १६ ॥ 

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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्ड का उपसंहार

 

श्रीनारद उवाच -
सोऽयं भीमरथो राजा मयदैत्यसुतोऽभवत् ।
श्रीकृष्णभुजवेगेन मुक्तिं प्राप विदेहराट् ॥ १४ ॥
एकदा गोपबालेषु दैत्योऽरिष्टो महाबलः ।
आगतो नादयन् खं गां तटान् शृङ्गैर्विदारयन् ॥ १५ ॥
गोप्यो गोपा गोगणाश्च वीक्ष्य तं दुद्रुवुर्भयात् ।
भगवान् दैत्यहा देवो मा भैष्टैत्यभयं ददौ ॥ १६ ॥
गृहीत्वा तं तु शृङ्गेषु नोदयामास माधवः ।
सोऽपि तं नोदयामास श्रीकृष्णं योजनद्वयम् ॥ १७ ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णो भ्रामयित्वा भुजौजसा ।
भूपृष्ठे पोथयामास कमण्डलुमिवार्भकः ॥ १८ ॥
अरिष्टः पुनरुत्थाय क्रोधसंरक्तलोचनः ।
शृङ्गैश्च रोहितं शैलं समुत्पाट्य महाखलः ॥ १९ ॥
गर्जयन्घनवद्वीरः कृष्णोपरि समाक्षिपत् ।
कृष्णः शैलं संगृहित्वा तस्योपरि समाक्षिपत् ॥ २० ॥
शैलस्यापि प्रहारेण किंचिद्व्याकुलमानसः ।
भूमौ तताड शृङ्गाग्रान्निर्गतं तैर्जलं भुवः ॥ २१ ॥
श्रीकृष्णस्तं च शृङ्गेषु गृहीत्वा भ्रामयन्मुहुः ।
भूपृष्ठे पोथयामास वातः पद्ममिवोद्‌धृतम् ॥ २२ ॥
तदैव वृषरूपत्वं त्यक्त्वा विप्रवपुर्धरः ।
नत्वा श्रीकृष्णपादाब्जं प्राह गद्‌गदया गिरा ॥ २३ ॥


द्विज उवाच -
बृहस्पतेश्च शिष्योऽहं वरतंतुर्द्विजोत्तमः ।
बृहस्पतिसमीपे च पठितुं गतवानहम् ॥ २४ ॥
पादौ कृत्वा स्थितोऽभूवं पश्यतस्तस्य संमुखे ।
तदा रुषाऽऽह स मुनिः वृषवत्वं स्थितः पुरः ॥ २५ ॥
गुरुहेलनकृत्तस्मात्त्वं बृषो भव दुर्मते ।
तस्य शापाद्‌वृषोऽभूवं बंगदेशेषु माधव ॥ २६ ॥
असुराणां प्रसंगेना सुरत्वं गतवानहम् ।
त्वत्प्रसादाद्‌विमुक्तोऽहं शापतोऽसुरभावतः ॥ २७ ॥
श्रीकृष्णाय नमस्तुभ्यं वासुदेवाय ते नमः ।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः ॥ २८ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिं नत्वा साक्षाच्छिष्यो बृहस्पतेः ।
द्योतयन्भुवनं राजन् विमानेन दिवं ययौ ॥ २९ ॥
इदं मया ते कथितं खण्डं माधुर्य्यमद्‌भुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णप्राप्तिकरं परम् ॥ ३० ॥
कामदं पठतां शश्वत्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं—विदेहराज ! वही यह राजा भीमरथ मय दैत्यका पुत्र हुआ और श्रीकृष्णके बाहुबेग से मोक्ष को प्राप्त हुआ। एक दिन गोपबालकों के बीच में महाबली दैत्य अरिष्ट आया। वह अपने सिंहनाद से पृथ्वी और आकाश को गुँजा रहा था और सींगों से पर्वतीय तटों को विदीर्ण कर रहा था। उसे देखते ही गोपियाँ, गोप तथा गौओंके समुदाय भयसे इधर- उधर भागने लगे। दैत्योंके नाशक भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको अभय देते हुए कहा- 'डरो मत।' माधवने उसके सींग पकड़ लिये और उसे पीछे ढकेल दिया। उस राक्षसने भी श्रीकृष्णको ढकेलकर दो योजन पीछे कर दिया ॥ १४-१७

तब श्रीकृष्णने उसकी पूँछ पकड़ ली और बाहुवेगसे घुमाते हुए उसे उसी प्रकार पृथ्वीपर पटक दिया, जैसे छोटा बालक कमण्डलुको फेंक दे। अरिष्ट फिर उठा । क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो रहे थे। उस महादुष्ट वीरने सींगोंसे लाल पत्थर उखाड़कर मेघकी भाँति गर्जना करते हुए श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। श्रीकृष्णने उस प्रस्तरको पकड़कर उलटे उसीपर दे मारा १८-२०

उस शिलाखण्ड के प्रहारसे वह मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। उसने अपने सींगोंके अग्रभागको पृथ्वीपर पीटना आरम्भ किया, इससे पृथ्वीके भीतरसे पानी निकल आया। तब श्रीकृष्णने उसके सींग पकड़कर बार-बार घुमाते हुए उसे पृथ्वीपर उसी प्रकार दे मारा, जैसे हवा कमलको उठाकर फेंक देती है। उसी समय वह वृषभका रूप त्यागकर ब्राह्मणशरीर- धारी हो गया और श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें प्रणाम करके गद्गद वाणीमें बोला ॥। २१ - २३ ।।

ब्राह्मणने कहा - भगवन् ! मैं बृहस्पतिका शिष्य द्विजश्रेष्ठ वरतन्तु हूँ । मैं बृहस्पतिजीके समीप पढ़ने गया था। उस समय उनकी ओर पाँव फैलाकर उनके सामने बैठ गया था। इससे वे मुनि रोषपूर्वक बोले- 'तू मेरे आगे बैलकी भाँति बैठा है, इससे गुरुकी अवहेलना हुई है; अतः दुर्बुद्धे ! तू बैल हो जा।' माधव ! उस शापसे मैं वङ्गदेशमें बैल हो गया ॥ २४-२६

असुरोंके सङ्गमें रहनेसे मुझमें असुरभाव आ गया था। अब आपके प्रसादसे मैं शाप और असुरभावसे मुक्त हो गया। आप श्रीकृष्णको नमस्कार है। आप भगवान् वासुदेवको प्रणाम है। प्रणतजनोंके क्लेशका नाश करनेवाले आप गोविन्ददेवको बारंबार नमस्कार है । २ - २८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! यों कहकर श्रीहरिको नमस्कार करके बृहस्पतिके साक्षात् शिष्य वरतन्तु भुवनको प्रकाशित करते हुए विमानसे दिव्यलोकको चले गये। इस प्रकार मैंने अद्भुत माधुर्यखण्डका तुमसे वर्णन किया, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक तथा श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला उत्तम साधन है। जो सदा इसका पाठ करते हैं, उनकी समस्त कामनाओंको यह देनेवाला है और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २९ - ३१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'व्योमासुर और अरिष्टासुरका वध' नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

 

॥ माधुर्यखण्ड सम्पूर्ण ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 



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