शनिवार, 9 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

ये त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।
कुर्वन्ति अप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥
रजसा कुण्ठमनसः कामात्मानोऽजितेन्द्रियाः ।
पितॄन् यजन्ति अनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥ १७ ॥
त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।
कथायां कथनीयोरु विक्रमस्य मधुद्विषः ॥ १८ ॥
नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।
हित्वा शृण्वन्ति असद्गा्थाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥ १९ ॥

जिनका चित्त इस लोकमें आसक्त है और जो कर्मोंमें श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान करने में ही लगे रहते हैं ॥ १६ ॥ उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वशमें नहीं होतीं; बस, अपने घरोंमें ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरोंकी पूजामें लगे रहते हैं ॥ १७ ॥ ये लोग अर्थ, धर्म, और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान्‌ की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं ॥ १८ ॥ हाय ! विष्ठा-भोजी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवत्कथामृत को छोडक़र निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं—वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

आद्यः स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।
योगेश्वरैः कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥ १२ ॥
भेददृष्ट्याभिमानेन निःसङ्गेनापि कर्मणा ।
कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥
स संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।
जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४ ॥
ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।
निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५ ॥

वेदगर्भ ब्रह्माजी भी—जो समस्त स्थावर-जङ्गम प्राणियोंके आदिकारण हैं—मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योगप्रवर्तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्मको प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वाभिमानके  कारण भगवदिच्छासे, जब सर्गकाल उपस्थित होता है तब, कालरूप ईश्वरकी प्रेरणासे गुणोंमें क्षोभ होनेपर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं ॥ १२—१४ ॥ इसी प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोकके ऐश्वर्यको भोगकर भगवदिच्छासे गुणोंमें क्षोभ होनेपर पुन: इस लोकमें आ जाते हैं ॥ १५ ॥

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गुरुवार, 7 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

क्ष्माम्भोऽनलानिलवियन् मनैन्द्रियार्थ
     भूतादिभिः परिवृतं प्रतिसञ्जिहीर्षुः ।
अव्याकृतं विशति यर्हि गुणत्रयात्मा
     कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयम्भूः ॥ ९ ॥
एवं परेत्य भगवन् तमनुप्रविष्टा
     ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।
तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं
     ब्रह्म प्रधानमुपयान्ति अगताभिमानाः ॥ १० ॥
अथ तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।
श्रुतानुभावं शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥ ११ ॥

(कपिलदेवजी कहते हैं) जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्माजी अपने द्विपरार्धकाल के अधिकार को भोगकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मि का प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान्‌ ब्रह्माजी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हीं के साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपुरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान्‌ में लीन नहीं हुए, क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष था ॥ ९-१० ॥ इसलिये माताजी ! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदय-कमल ही उनका मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है ॥ ११ ॥ 

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बुधवार, 6 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

ये स्वधर्मान्न दुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।
निःसङ्गा न्यस्तकर्माणः प्रशान्ताः शुद्धचेतसः ॥ ५ ॥
निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहङ्कृताः ।
स्वधर्माप्तेन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥ ६ ॥
सूर्यद्वारेण ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।
परावरेशं प्रकृतिं अस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥ ७ ॥
द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।
तावद् अध्यासते लोकं परस्य परचिन्तकाः ॥ ८ ॥

जो विवेकी पुरुष अपने धर्मों का  अर्थ और भोग-विलास के लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं—वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्तिधर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य पुरुष स्वधर्मपालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं ॥ ५-६ ॥ वे अन्त में सूर्यमार्ग (अर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं—जो कार्य-कारणरूप जगत् के नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करनेवाले हैं ॥ ७ ॥  जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं,वे दो परार्ध में होनेवाले ब्रह्माजी के प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोकमें ही रहते हैं ॥ ८ ॥ 

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मंगलवार, 5 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

कपिल उवाच –

अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन्गृहे ।
काममर्थं च धर्मान् स्वान् दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥ १ ॥
स चापि भगवद्धर्मात् काममूढः पराङ्‌मुखः ।
यजते क्रतुभिर्देवान् पितॄंश्च श्रद्धयान्वितः ॥ २ ॥
तत् श्रद्धया क्रान्तमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।
गत्वा चान्द्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥ ३ ॥
यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।
तदा लोका लयं यान्ति ते एते गृहमेधिनाम् ॥ ४ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जो पुरुष घरमें रहकर सकामभावसे गृहस्थके धर्मोंका पालन करता है और उनके फलस्वरूप अर्थ एवं कामका उपभोग करके फिर उन्हींका अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरहकी कामनाओंसे मोहित रहनेके कारण भगवद्धर्मोंसे विमुख हो जाता है और यज्ञोंद्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरोंकी ही आराधना करता रहता है ॥ १-२ ॥ उसकी बुद्धि उसी प्रकारकी श्रद्धासे युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अत: वह चन्द्रलोक में जाकर उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होनेपर इसी लोकमें लौट आता है ॥ ३ ॥ जिस समय प्रलयकालमें शेषशायी भगवान्‌ शेषशय्यापर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियोंको प्राप्त होनेवाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं ॥ ४ ॥

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सोमवार, 4 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

देहेन जीवभूतेन लोकात् लोकमनुव्रजन् ।
भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ॥ ४३ ॥
जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमयः ।
तन्निरोधोऽस्य मरणं आविर्भावस्तु सम्भवः ॥ ४४ ॥
द्रव्योपलब्धिस्थानस्य द्रव्येक्षायोग्यता यदा ।
तत्पञ्चत्वं अहंमानाद् उत्पत्तिर्द्रव्यदर्शनम् ॥ ४५ ॥
यथाक्ष्णोर्द्रव्यावयव दर्शनायोग्यता यदा ।
तदैव चक्षुषो द्रष्टुः द्रष्टृत्वायोग्यतानयोः ॥ ४६ ॥
तस्मान्न कार्यः सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रमः ।
बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसङ्गश्चरेदिह ॥ ४७ ॥
सम्यग्दर्शनया बुद्ध्या योगवैराग्ययुक्तया ।
मायाविरचिते लोके चरेन्न्यस्य कलेवरम्  ॥ ४८ ॥

(कपिलदेवजी कहते हैं) देवि ! जीव के उपाधिभूत लिङ्गदेह के द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्धकर्मों को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है ॥ ४३ ॥ जीवका उपाधिरूप लिङ्गशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मनका कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनोंका परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणीकी ‘मृत्यु’ है और दोनोंका साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है ॥ ४४ ॥ पदार्थोंकी उपलब्धिके स्थानरूप इस स्थूलशरीरमें जब उनको ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं हूँ—इस अभिमानके साथ उसे देखना उसका जन्म है ॥ ४५ ॥ नेत्रोंमें जब किसी दोषके कारण रूपादिको देखनेकी योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखनेमें असमर्थ हो जाती है। और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखनेमें असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनोंके साक्षी जीवमें भी वह योग्यता नहीं रहती ॥ ४६ ॥ अत: मुमुक्षु पुरुषको मरणादिसे भय, दीनता अथवा मोह नहीं होना चाहिये। उसे जीवके स्वरूपको जानकर धैर्यपूर्वक नि:सङ्गभावसे विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसारमें योग-वैराग्ययुक्त सम्यक्ज्ञानमयी बुद्धिसे शरीरको निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ॥ ४७-४८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कपिलेयोपाख्याने जीवगतिर्नाम एकयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 3 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु
     योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो
     वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥ ३९ ॥
योपयाति शनैर्माया योषिद् देवविनिर्मिता ।
तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः कूपमिवावृतम् ॥ ४० ॥
यां मन्यते पतिं मोहान् मन्मायामृषभायतीम् ।
स्त्रीत्वं स्त्रीसङ्गतः प्राप्तो वित्तापत्यगृहप्रदम् ॥ ४१ ॥
तां आत्मनो विजानीयात् पत्यपत्यगृहात्मकम् ।
दैवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं यथा ॥ ४२ ॥

जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका सङ्ग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ॥ ३९ ॥ भगवान्‌की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदिके मिससे पास आती है, इसे तिनकोंसे ढके हुए कुएँके समान अपनी मृत्यु ही समझे ॥ ४० ॥ स्त्रीमें आसक्त रहनेके कारण तथा अन्त समयमें स्त्रीका ही ध्यान रहनेसे जीवको स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनिको प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूपमें प्रतीत होनेवाली मेरी मायाको ही धन, पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधेका गान कानोंको प्रिय लगनेपर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियोंको फँसाकर उनके नाशका ही कारण होता है— उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदिको विधाताकी निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ॥ ४१-४२ ॥ 

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शनिवार, 2 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः श्रीर्ह्रीर्यशः क्षमा ।
शमो दमो भगश्चेति यत्सङ्गाद्याति सङ्क्षयम् ॥ ३३ ॥
तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु योषित् क्रीडामृगेषु च ॥ ३४ ॥
न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित्सङ्गात् यथा पुंसो यथा तत्सङ्‌गिसङ्गतः ॥ ३५ ॥
प्रजापतिः स्वां दुहितरं दृष्ट्वा तद् रूपधर्षितः ।
रोहिद्भूःतां सोऽन्वधावद् ऋक्षरूपी हतत्रपः ॥ ३६ ॥
तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु को न्वखण्डितधीः पुमान् ।
ऋषिं नारायणमृते योषिन् मय्येह मायया ॥ ३७ ॥
बलं मे पश्य मायायाः स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् ।
या करोति पदाक्रान्तान् भ्रूविजृम्भेण केवलम् ॥ ३८ ॥

जिनके सङ्गसे इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, वाणीका संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियोंके क्रीडामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषोंका सङ्ग कभी नहीं करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ क्योंकि इस जीवको किसी और का सङ्ग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के सङ्गियों का सङ्ग करने से होता है ॥ ३५ ॥ एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप-लावण्यसे मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर भागनेपर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौडऩे लगे ॥ ३६ ॥ उन्हीं ब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंकी तथा मरीचि आदिने कश्यपादिकी और कश्यपादिने देव-मनुष्यादि प्राणियोंकी सृष्टि की। अत: इनमें एक ऋषिप्रवर नारायणको छोडक़र ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी मायासे मोहित न हो ॥ ३७ ॥ अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी मायाका बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि-विलासमात्रसे बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरोंको पैरोंसे कुचल देती है ॥ ३८ ॥

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शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानाद् इद्धमन्युः शुचार्पितः ॥ २८ ॥
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥ २९ ॥
भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे देह्यबुधोऽसकृत् ।
अहं ममेत्यसद्ग्रा हः करोति कुमतिर्मतिम् ॥ ३० ॥
तदर्थं कुरुते कर्म यद्बाद्धो याति संसृतिम् ।
योऽनुयाति ददत्क्लेशं अविद्याकर्मबन्धनः ॥ ३१ ॥
यद्यसद्‌भि पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।
आस्थितो रमते जन्तुः तमो विशति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड—अवस्थाओं के दु:ख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है । इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ॥ २८ ॥ देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है ॥ २९ ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतोंसे रचे हुए इस देहमें मिथ्याभिनिवेशके कारण निरन्तर मैं-मेरेपनका अभिमान करने लगता है ॥ ३० ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रसे बँधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह-तरहके कर्म करता रहता है—जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसार-चक्रमें पडऩा होता है ॥ ३१ ॥ सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगोंमें लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्हींका अनुगमन करने लगता है, तो पहलेके समान ही फिर नारकी योनियोंमें पड़ता है ॥ ३२ ॥ 

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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

कपिल उवाच -
एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः ।
सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः ॥ २२ ॥
तेनावसृष्टः सहसा कृत्वावाक् शिर आतुरः ।
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥ २३ ॥
पतितो भुव्यसृङ्‌मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते ।
रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः ॥ २४ ॥
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः ।
अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ॥ २५ ॥
शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुः स्वेदजदूषिते ।
नेशः कण्डूयनेऽङ्गानां आसनोत्थानचेष्टने ॥ २६ ॥
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।
रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ॥ २७ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माता ! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिये ढकेलती है ॥२२॥ उसके सहसा ठेलने पर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वास की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ॥२३॥ पृथ्वीपर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है ।  उसका गर्भवास  का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और  वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा)-को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोरसे रोता है ॥२४ ॥ फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करनेकी शक्ति भी उसमें नहीं होती ॥ २५ ॥ जब उस जीवको शिशु-अवस्थामें मैली-कुचैली खाटपर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीरको खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलनेकी भी सामर्थ्य न होनेके कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ २६ ॥ उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्थाका सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोनेके वह कुछ नहीं कर सकता ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...