शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 

चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

मैत्रेय उवाच -
विनिन्द्यैवं स गिरिशं अप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोऽथाप उपस्पृश्य क्रुद्धः शप्तुं प्रचक्रमे ॥ १७ ॥
अयं तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भवः ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधमः ॥ १८ ॥
निषिध्यमानः स सदस्यमुख्यैः
     दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद् विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्युः
     जगाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥ १९ ॥
विज्ञाय शापं गिरिशानुगाग्रणीः
     नन्दीश्वरो रोषकषायदूषितः ।
दक्षाय शापं विससर्ज दारुणं
     ये चान्वमोदन् तदवाच्यतां द्विजाः ॥ २० ॥
य एतन्मर्त्यमुद्दिश्य भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
द्रुह्यत्यज्ञः पृथग्दृष्टिः तत्त्वतो विमुखो भवेत् ॥ २१ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते वेदवादविपन्नधीः ॥ २२ ॥
बुद्ध्या पराभिध्यायिन्या विस्मृतात्मगतिः पशुः ।
स्त्रीकामः सोऽस्त्वतितरां दक्षो बस्तमुखोऽचिरात् ॥ २३ ॥
विद्याबुद्धिः अविद्यायां कर्ममय्यामसौ जडः ।
संसरन्त्विह ये चामुं अनु शर्वावमानिनम् ॥ २४ ॥
गिरः श्रुतायाः पुष्पिण्या मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना चोन्मथितात्मानः सम्मुह्यन्तु हरद्विषः ॥ २५ ॥
सर्वभक्षा द्विजा वृत्त्यै धृतविद्यातपोव्रताः ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा याचका विचरन्त्विह ॥ २६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दक्ष ने इस प्रकार महादेवजी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इससे दक्षके क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये ॥ १७ ॥ दक्षने कहा, ‘यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले’ ॥ १८ ॥ उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसीकी न सुनी; महादेवजीको शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यन्त क्रोधित हो उस सभासे निकलकर अपने घर चले गये ॥ १९ ॥ जब श्रीशङ्करजी के अनुयायियों में अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणोंको, जिन्होंने दक्षके दुर्वचनोंका अनुमोदन किया था, बड़ा भयङ्कर शाप दिया ॥ २० ॥ वे बोले—‘जो इस मरण-धर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से भी द्रोह न करनेवाले भगवान्‌ शङ्कर से द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धिवाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञानसे विमुख ही रहे ॥ २१ ॥ यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्योंसे मोहित एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुखकी इच्छासे कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममें आसक्त रहकर कर्मकाण्डमें ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया है; यह साक्षात् पशुके ही समान है, अत: अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाय ॥ २२-२३ ॥ यह मूर्ख कर्ममयी अविद्याको ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान्‌ शङ्करका अपमान करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें ॥ २४ ॥ वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पोंसे सुशोभित है, उसके कर्मफलरूप मनोमोहक गन्धसे इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शङ्करद्रोही कर्मोंके जालमें ही फँसे रहें ॥ २५ ॥ ये ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोडक़र केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या, तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियोंके सुखको ही सुख मानकर—उन्हींके गुलाम बनकर दुनियामें भीख माँगते भटका करें’ ॥ २६ ॥

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गुरुवार, 4 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

श्रूयतां ब्रह्मर्षयो मे सहदेवाः सहाग्नयः ।
साधूनां ब्रुवतो वृत्तं न अज्ञानात् न च मत्सरात् ॥ ९ ॥
अयं तु लोकपालानां यशोघ्नो निरपत्रपः ।
सद्‌भिः आचरितः पन्था येन स्तब्धेन दूषितः ॥ १० ॥
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखतः सावित्र्या इव साधुवत् ॥ ११ ॥
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्याः पाणिं मर्कटलोचनः ।
प्रत्युत्थानाभिवादार्हे वाचाप्यकृत नोचितम् ॥ १२ ॥
लुप्तक्रियायाशुचये मानिने भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां बालां शूद्रायेवोशतीं गिरम् ॥ १३ ॥
प्रेतावासेषु घोरेषु प्रेतैर्भूतगणैर्वृतः ।
अटतु उन्मत्तवत् नग्नो व्युप्तकेशो हसन् रुदन् ॥ १४ ॥
चिताभस्मकृतस्नानः प्रेतस्रङ्‌ अस्थिभूषणः ।
शिवापदेशो ह्यशिवो मत्तो मत्तजनप्रियः ।
पतिः प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम् ॥ १५ ॥
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्हृदे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठिना ॥ १६ ॥

(प्रजापति दक्ष कहरहे हैं) ‘देवता और अग्नियोंके सहित समस्त ब्रहमर्षिगण मेरी बात सुनें । मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचारकी बात कहता हूँ ॥ ९ ॥ यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूलमें मिला रहा है। देखिये इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लाञ्छित एवं मटियामेट कर दिया है ॥ १० ॥ बंदरके- से नेत्रवाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया ॥११-१२ ॥ हाय ! जिस प्रकार शूद्रको कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी ! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्मकी मर्यादा को तोड़ रहा है ॥ १३ ॥ यह प्रेतों के निवासस्थान भयङ्कर श्मशानोंमें भूत-प्रेतोंको साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागलकी तरह सिरके बाल बिखेरे नंग-धड़ंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है ॥ १४ ॥ यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहननेयोग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के गहने पहने रहता है । यह बस, नामभर का ही शिव है, वास्तवमें है पूरा अशिव— अमङ्गलरूप। जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाववाले जीवोंका यह नेता है ॥ १५ ॥ अरे ! मैंने केवल ब्रह्माजीके बहकावेमें आकर ऐसे भूतोंके सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाववाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’ ॥ १६ ॥

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बुधवार, 3 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

विदुर उवाच -
भवे शीलवतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृवत्सलः ।
विद्वेषं अकरोत् कस्माद् अनादृत्यात्मजां सतीम् ॥ १ ॥
कस्तं चराचरगुरुं निर्वैरं शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं महत् ॥ २ ॥
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन् जामातुः श्वशुरस्य च ।
विद्वेषस्तु यतः प्राणान् तत्यजे दुस्त्यजान्सती ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच -
पुरा विश्वसृजां सत्रे समेताः परमर्षयः ।
तथामरगणाः सर्वे सानुगा मुनयोऽग्नयः ॥ ४ ॥
तत्र प्रविष्टमृषयो दृष्ट्वार्कमिव रोचिषा ।
भ्राजमानं वितिमिरं कुर्वन्तं तन्महत्सदः ॥ ५ ॥
उदतिष्ठन् सदस्यास्ते स्वधिष्ण्येभ्यः सहाग्नयः ।
ऋते विरिञ्चां शर्वं च तद्भा्साक्षिप्तचेतसः ॥ ६ ॥
सदसस्पतिभिर्दक्षो भगवान् साधु सत्कृतः ।
अज लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया ॥ ७ ॥
प्राङ्‌निषण्णं मृडं दृष्ट्वा नामृष्यत् तद् अनादृतः ।
उवाच वामं चक्षुर्भ्यां अभिवीक्ष्य दहन्निव ॥ ८ ॥

विदुरजीने पूछा—ब्रह्मन् ! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियोंसे बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सतीका अनादर करके शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेवजीसे द्वेष क्यों किया ? ॥ १ ॥ महादेव जी भी चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत् के परम आराध्यदेव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा ? ॥ २ ॥
भगवन् ! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सतीने अपने दुस्त्यज प्राणोंतक की बलि दे दी ? यह आप मुझसे कहिये ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एकत्र हुए थे ॥ ४ ॥ उसी समय प्रजापति दक्षने भी उस सभामें प्रवेश किया। वे अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभाभवनका अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्माजी और महादेवजीके अतिरिक्त अग्निपर्यन्त सभी सभासद् उनके तेजसे प्रभावित होकर अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार समस्त सभासदोंसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्माजीको प्रणाम कर उनकी आज्ञासे अपने आसनपर बैठ गये ॥ ७ ॥ परन्तु महादेवजीको पहलेसे ही बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूपमें कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजरसे इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे— ॥ ८ ॥ 

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मंगलवार, 2 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट११)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेः आत्मजान् त्रीन् अजीजनत् ।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुतभोजनम् ॥ ६० ॥
तेभ्योऽग्नयः समभवन् चत्वारिंशच्च पञ्च च ।
ते एवैकोनपञ्चाशत् साकं पितृपितामहैः । ॥ ६१ ॥
वैतानिके कर्मणि यत् नामभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
आग्नेय्य इष्टयो यज्ञे निरूप्यन्तेऽग्नयस्तु ते । ॥ ६२ ॥
अग्निष्वात्ता बर्हिषदः सौम्याः पितर आज्यपाः ।
साग्नयोऽनग्नयस्तेषां पत्नी् दाक्षायणी स्वधा । ॥ ६३ ॥
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां धारिणीं स्वधा ।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ ज्ञानविज्ञानपारगे । ॥ ६४ ॥
भवस्य पत्नी् तु सती भवं देवमनुव्रता ।
आत्मनः सदृशं पुत्रं न लेभे गुणशीलतः । ॥ ६५ ॥
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा ।
अप्रौढैवात्मनात्मानं अजहाद् योगसंयुता । ॥ ६६ ॥

अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि—ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थोंका भक्षण करनेवाले हैं ॥ ६० ॥ इन्हीं तीनोंसे पैंतालीस प्रकारके अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्रि कहलाये ॥ ६१ ॥ वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नियी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं ॥ ६२ ॥
अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप—ये पितर हैं; इनमें साग्नक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों की पत्नी दक्षकुमारी स्वधा हैं ॥ ६३ ॥ इन पितरों से स्वधा के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुर्ईं । वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारङ्गत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करनेवाली हुर्ईं ॥ ६४ ॥ महादेवजी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहनेवाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शीलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ ॥ ६५ ॥ क्योंकि सतीके पिता दक्षने बिना ही किसी अपराधके भगवान्‌ शिवजीके प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सतीने युवावस्थामें ही क्रोधवश योगके द्वारा स्वयं ही अपने शरीरका त्याग कर दिया था ॥ ६६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 1 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

देवा ऊचुः –

यो मायया विरचितं निजयात्मनीदं
     खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य
     प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै ॥ ५६ ॥
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्
     सत्त्वेन नः सुरगणान् अनुमेयतत्त्वः ।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन
     यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ॥ ५७ ॥
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्टुतौ ।
लब्धावलोकैर्ययतुः अर्चितौ गन्धमादनम् ॥ ५८ ॥
तौ इमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ ।
भारव्ययाय च भुवः कृष्णौ यदुकुरूद्वहौ ॥ ५९ ॥

देवताओंने कहा—जिस प्रकार आकाशमें तरह-तरहके रूपोंकी कल्पना कर ली जाती है—उसी प्रकार जिन्होंने अपनी मायाके द्वारा अपने ही स्वरूपके अंदर इस संसारकी रचना की है और अपने उस स्वरूपको प्रकाशित करनेके लिये इस समय इस ऋषि-विग्रहके साथ धर्मके घरमें अपने- आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुषको हमारा नमस्कार है ॥ ५६ ॥ जिनके तत्त्वका शास्त्रके आधारपर हमलोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते—उन्हीं भगवान्‌ने देवताओंको संसारकी मार्यादामें किसी प्रकारकी गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुणसे उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रोंसे—जो समस्त शोभा और सौन्दर्यके निवासस्थान निर्मल दिव्य कमलको भी नीचा दिखानेवाले हैं—हमारी ओर निहारें ॥ ५७ ॥
प्यारे विदुरजी ! प्रभुका साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की । तदनन्तर भगवान्‌ नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वतपर चले गये ॥ ५८ ॥ भगवान्‌ श्रीहरिके अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुल भूषण श्रीकृष्ण और उन्हींके सरीखे श्यामवर्ण, कुरुकुलतिलक अर्जुनके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ ५९ ॥

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रविवार, 31 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मूर्तिः सर्वगुणोत्पत्तिः नरनारायणौ ऋषी ॥ ५२ ॥ 
ययोर्जन्मन्यदो विश्वं अभ्यनन्दत् सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदुः सरितोऽद्रयः ॥ ५३ ॥
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतुः कुसुमवृष्टयः ।
मुनयस्तुष्टुवुस्तुष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नराः ॥ ५४ ॥
नृत्यन्ति स्म स्त्रियो देव्य आसीत् परममङ्‌गलम् ।
देवा ब्रह्मादयः सर्वे उपतस्थुरभिष्टवैः ॥ ५५ ॥

समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया ॥ ५२ ॥ इनका जन्म होनेपर इस सम्पूर्ण विश्वने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगोंके मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत—सभीमें प्रसन्नता छा गयी ॥ ५३ ॥ आकाशमें माङ्गलिक बाजे बजने लगे, देवतालोग फूलोंकी वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे ॥ ५४ ॥ अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मङ्गल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रोंद्वारा भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ५५ ॥

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शनिवार, 30 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे ह्यजात्मजः ।
तस्यां ससर्ज दुहितॄः षोडशामललोचनाः ॥ ४७ ॥
त्रयोदशादाद्धर्माय तथैकामग्नये विभुः ।
पितृभ्य एकां युक्तेभ्यो भवायैकां भवच्छिदे ॥ ४८ ॥
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिः तुष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः ।
बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ह्रीः मूर्तिर्धर्मस्य पत्नोयः ॥ ४९ ॥
श्रद्धासूत शुभं मैत्री प्रसादं अभयं दया ।
शान्तिः सुखं मुदं तुष्टिः स्मयं पुष्टिः असूयत ॥ ५० ॥
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पं अर्थं बुद्धिरसूयत ।
मेधा स्मृतिं तितिक्षा तु क्षेमं ह्रीः प्रश्रयं सुतम् ॥ ५१ ॥

ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूतिसे विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं ॥ ४७ ॥ भगवान्‌ दक्षने उनमेंसे तेरह धर्मको, एक अग्निको, एक समस्त पितृगणको और एक संसारका संहार करनेवाले तथा जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले भगवान्‌ शङ्कर को दी ॥ ४८ ॥ श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति—ये धर्मकी पत्नियाँ हैं ॥ ४९ ॥ इनमेंसे श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मोद और पुष्टिने अहंकारको जन्म दिया ॥ ५० ॥ क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बुद्धिने अर्थ, मेधाने स्मृति, तितिक्षाने क्षेम और ह्री (लज्जा)ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ५१ ॥ 

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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

भृगुः ख्यात्यां महाभागः पत्न्यां  पुत्रानजीजनत् ।
धातारं च विधातारं श्रियं च भगवत्पराम् ॥ ४३ ॥
आयतिं नियतिं चैव सुते मेरुस्तयोरदात् ।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एव च ॥ ४४ ॥
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा मुनिः ।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः ॥ ४५ ॥
ते एते मुनयः क्षत्तः लोकान् सर्गैरभावयन् ।
एष कर्दमदौहित्र सन्तानः कथितस्तव ।
श्रृण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः पापहरः परः ॥ ४६ ॥

महाभाग भृगुजी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नाम की एक भगवत्परायणा कन्या उत्पन्न की ॥ ४३ ॥ मेरुऋषिने अपनी आयति और नियति नामकी कन्याएँ क्रमश: धाता और विधाताको ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए ॥ ४४ ॥ उनमेंसे मृकण्डके मार्कण्डेय और प्राणके मुनिवर वेदशिराका जन्म हुआ। भृगुजीके एक कविनामक पुत्र भी थे। उनके भगवान्‌ उशना (शुक्राचार्य) हुए ॥ ४५ ॥ विदुरजी ! इन सब मुनीश्वरोंने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टिका विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दमजीके दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापोंको यह तत्काल नष्ट कर देता है ॥ ४६ ॥

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गुरुवार, 28 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

श्रद्धा त्वङ्‌गिरसः पत्नीश चतस्रोऽसूत कन्यकाः ।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥ ३४ ॥
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेऽन्तरे ।
उतथ्यो भगवान् साक्षात् ब्रह्मिष्ठश्च बृहस्पतिः ॥ ३५ ॥
पुलस्त्योऽजनयत्पत्न्यांय अगस्त्यं च हविर्भुवि ।
सोऽन्यजन्मनि दह्राग्निः विश्रवाश्च महातपाः ॥ ३६ ॥
तस्य यक्षपतिर्देवः कुबेरस्त्विडविडासुतः ।
रावणः कुम्भकर्णश्च तथान्यस्यां विभीषणः ॥ ३७ ॥
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते ॥ ३८ ॥
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ ३९ ॥
ऊर्जायां जज्ञिरे पुत्रा वसिष्ठस्य परंतप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ४० ॥
चित्रकेतुः सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च ।
उल्बणो वसुभृद्यानो द्युमान् शक्त्यादयोऽपरे ॥ ४१ ॥
चित्तिस्त्वथर्वणः पत्नीम लेभे पुत्रं धृतव्रतम् ।
दध्यञ्चमश्वशिरसं भृगोर्वंशं निबोध मे ॥ ४२ ॥

अङ्गिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति—इन चार कन्याओं को जन्म दिया ॥ ३४ ॥ इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान्‌ उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी—ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए ॥ ३५ ॥ पुलस्त्यजी के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा—ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए ॥ ३६ ॥ विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥ 
महामते ! महर्षि पुलहकी स्त्री परम साध्वी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार क्रतुकी पत्नी क्रियाने ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया ॥ ३९ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित्त ब्रहमर्षियों का जन्म हुआ ॥४०॥ उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नीसे शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए ॥ ४१ ॥ अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगुके वंशका वर्णन सुनो ॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 27 अगस्त 2025

#जय श्री गजानन#

#श्री गणेशाय नम:#

श्री गणेशचतुर्थी पर्व की हार्दिक शुभ कामनाएं !!
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी)

गजाननं भूतगणादिसेवितं 
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारकं 
नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय विघ्नविनाशक श्री गणेश का जन्म हुआ था | अत: यह तिथि मध्याह्नव्यापिनी लेनी चाहिए | इस दिन रविवार अथवा मंगलवार हो तो प्रशस्त है | गणेश जी हिन्दुओं के प्रथमपूज्य देवता हैं | सनातन धर्मानुयायी स्मार्तों के पञ्चदेवताओं में गणेशजी प्रमुख हैं | हिन्दुओं के घर में चाहे पूजा या क्रियाकर्म हो, सर्वप्रथम श्रीगणेश जी का आवाहन और पूजन किया जाता है | शुभ कार्यों में गणेश जी की स्तुति का अत्यन्त महत्त्व माना गया है | गणेशजी विघ्नों को दूर करने वाले देवता हैं | इनका मुख हाथी का, उदर लंबा तथा शेष शरीर मनुष्य के सामान है | मोदक इन्हें विशेषप्रिय है | बंगाल की दुर्गापूजा की तरह महाराष्ट्र में गणेशपूजा एक राष्ट्रिय पर्व के रूप में प्रतिष्ठित है |

गणेशचतुर्थी के दिन नक्तव्रत का विधान है | अत: भोजन सांयकाल करना चाहिए तथा पूजा यथासंभव मध्याह्न में ही करनी चाहिए, क्योंकि---
“पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथि: |”

....अर्थात् सभी पूजा-व्रतों में मध्याह्नव्यापिनी तिथि लेनी चाहिए |

भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार सोने,चाँदी ,तांबे,मिट्टी, पीतल अथवा गोबर से गणेश की प्रतिमा बनाए या बनी हुई प्रतिमा का पुराणों में वर्णित गणेश जी के गजानन, लम्बोदरस्वरूप का ध्यान करे और अक्षत-पुष्प लेकर निम्न संकल्प करे—

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य दक्षिणायने सूर्ये वर्षर्तौ भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे गणेशचतुर्थ्यां तिथौ अमुकगोत्रोऽमुक शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं विद्याऽऽरोगीपुत्रधनप्राप्तिपूर्वकं सपरिवारस्य मम सर्वसंकटनिवारणार्थं श्रीगणपतिप्रसादसिद्धये चतुर्थीव्रतांगत्वेन श्रीगणपतिदेवस्य यथालब्धोपचारै: पूजनं करिष्ये |

हाथ में लिए हुए अक्षत-पुष्प इत्यादि गणेशजीके पास छोड़ दें |

इसके बाद विघ्नेश्वर का यथाविधि “ ॐ गं गणपतये नम:” से पूजन कर दक्षिणा के पश्चात् आरती कर गणेशजी को नमस्कार करे एवं गणेशजी की मूर्त पर सिंदूर चढ़ाए | मोदक और दूर्वा की इस पूजा में विशेषता है | अत: पूजा के अवसर पर 21 दूर्वादल भी रखें | तथा उनमें से 2-2 दूर्वा निम्नलिखित दस नाममन्त्रों से क्रमश: चढ़ाएं ----

१-ॐ गणाधिपाय नम: , २- ॐ उमापुत्राय नम:, ३- ॐ विघ्ननाशनाय नम:,४- ॐ विनायकाय नम:, ५-ॐ ईशपुत्राय नम:, ६-ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नम:, ७-ॐ एकदन्ताय नम:, ८-इभवक्त्राय नम:, ९-ॐ मूषकवाहनाय नम:, १०- ॐ कुमारगौरवे नम: |

पश्चात् दसों नामों का एक साथ उच्चारण कर अवशिष्ट एक दूब चढ़ाएं | इसी प्रकार 21 लड्डू भी गणेशपूजा में आवश्यक होते हैं | इक्कीस लड्डू का भोग रखकर पांच लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और पांच, ब्राह्मण को दे दें एवं शेष को प्रसाद स्वरूप में स्वयं लेलें तथा परिवार के लोगों में बाँट दें | पूजन की यह विधि चतुर्थी के मध्याह्न में करें | ब्राह्मणभोजन कराकर दक्षिणा दे और स्वयं भोजन करें |

पूजन के पश्चात् नीचे लिखे वह सब सामग्री ब्राह्मण को निवेदन करें |

“दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर |
सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा |
मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे |”

इस व्रत से मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं, क्योंकि विघ्नहर गणेशजी के प्रसान्न होने पर क्या दुर्लभ है ? गणेशजी का यह पूजन बुद्धि, विद्या, तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति एवं विघ्नों के नाश के लिए किया जाता है |

कई व्यक्ति श्रीगणेशसहस्रनामावली के एक हजार नामों से प्रत्येक नाम के उच्चारण के साथ लड्डू अथवा दूर्वादल आदि श्रीगणेशजी को अर्पित करते हैं | इसे गणपतिसहस्रार्चन कहा जाता है |

..........कल्याण व्रतपर्वोत्सव-अंक


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...