मंगलवार, 30 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन

 

श्रीभगवानुवाच

यो विद्याश्रुतसम्पन्नः आत्मवान्नानुमानिकः

मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत् १

ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च सम्मतः

स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः २

ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम

ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम् ३

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च

नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता ४

तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ५

ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वात्मानमात्मनि

सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन् ६

त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो

मायान्तरापतति नाद्यपवर्गयोर्यत्

जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्युर्

आद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये ७

 

श्रीउद्धव उवाच

ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैत-

द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्

आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते

त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम् ८

तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे

सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश

पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि

द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ९

दष्टं जनं सम्पतितं बिलेऽस्मिन्

कालाहिना क्षुद्र सुखोरुतर्षम्

समुद्धरैनं कृपयापवर्ग्यै-

र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव १०

 

श्रीभगवानुवाच

इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्

अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम् ११

निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः

श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत १२

तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्

ज्ञानवैराग्यविज्ञान श्रद्धाभक्त्युपबृंहितान् १३

नवैकादश पञ्च त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै

ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम् १४

एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्

स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम् १५

आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात्सृज्यं यदन्वियात्

पुनस्तत्प्रतिसङ्क्रामे यच्छिष्येत तदेव सत् १६

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्

प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते १७

कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्च्यादमङ्गलम्

विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ १ ॥ ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता ॥ २ ॥ जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्त:करणमें धारण करता है ॥ ३ ॥ तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्त:करण-शुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ ४ ॥ इसलिये मेरे प्यारे उद्धव ! तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो ॥ ५ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्त:करणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ६ ॥ उद्धव ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमें ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना—ये छ: भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है  । यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ ७ ॥

उद्धवजीने कहा—विश्वरूप परमात्मन् ! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढ़ा करते हैं ॥ ८ ॥ मेरे स्वामी ! जो पुरुष इस संसारके विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र- छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ॥ ९ ॥ महानुभाव ! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँमें पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे डस रखा है; फिर भी विषयोंके क्षुद्र सुख- भोगोंकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा-धारासे इसे सराबोर कर दीजिये ॥ १० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! जो प्रश्र तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्र धर्मराज युधिष्ठिरने धाॢमकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ ११ ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके संहारसे शोक-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोंका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र किया था ॥ १२ ॥ उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा। क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्योंमें देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १४ ॥ जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहलेके समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्मको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करनेकी युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ॥ १५ ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमें अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाध होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ १६ ॥ श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणोंमें यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य-प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्चसे विरक्त हो जाता है ॥ १७ ॥ विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मोंके परिणामी—नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमङ्गल, दु:खदायी एवं नाशवान् समझे ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 29 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

 

 न एतद् वस्तुतया पश्येद् दृश्यमानं विनश्यति ।

 असक्तचित्तो विरमेद् इहामुत्र चिकीर्षितात् ॥ २६ ॥

 यद् एतद् आत्मनि जगन् मनो-वाक्-प्राण-संहतम् ।

 सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थः त्यक्त्वा न तत्स्मरेत् ॥ २७ ॥

 ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्‍भक्तो वा अनपेक्षकः ।

 सलिङ्गान् आश्रमान् त्यक्त्वा चरेद् अविधिगोचरः ॥ २८ ॥

 बुधो बालकवत् क्रीडेत् कुशलो जडवच्चरेत् ।

 वदेद् उन्मत्तवद् विद्वान् गोचर्यां नैगमश्चरेत् ॥ २९ ॥

 वेदवादरतो न स्यात् न पाखण्डी न हैतुकः ।

 शुष्कवादविवादे न कञ्चित् पक्षं समाश्रयेत् ॥ ३० ॥

 नोद्विजेत जनाद् धीरो जनं च उद्वेजयेत् न तु ।

 अतिवादान् तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।

 देहं उद्दिश्य पशुवत् वैरं कुर्यान् न केनचित् ॥ ३१ ॥

 एक एव परो ह्यात्मा भूतेषु आत्मनि-अवस्थितः ।

 यथा इंदुः उदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥ ३२ ॥

 अलब्ध्वा न विषीदेत कालेकाले अशनं क्वचित् ।

 लब्ध्वा न हृष्येद्-धृतिमान् उभयं दैवतंत्रितम् ॥ ३३ ॥

 आहारार्थं समीहेत युक्तं तत् प्राणधारणम् ।

 तत्त्वं विमृश्यते तेन तद् विज्ञाय विमुच्यते ॥ ३४ ॥

 यदृच्छया उपपन्नान्नं अद्यात् श्रेष्ठमुतापरम् ।

 तथा वासः तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन् मुनिः ॥ ३५ ॥

 शौचं आचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत् ।

 अन्यांश्च नियमान् ज्ञानी यथाहं लीलयेश्वरः ॥ ३६ ॥

 न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद् वीक्षया हता ।

 आ देहान्तात् क्वचित् ख्यातिः ततः संपद्यते मया ॥ ३७ ॥

 दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान् ।

 अजिज्ञासित मद्धर्मो गुरुं मुनिं उपाव्रजेत् ॥ ३८ ॥

 तावत् परिचरेद् भक्तः श्रद्धावान् अनसूयकः ।

 यावद् ब्रह्म विजानीयान् मामेव गुरुं आदृतः ॥ ३९ ॥

 यस्तु असंयत षड्वर्गः प्रचण्डेंद्रिय सारथिः ।

 ज्ञानवैराग्य रहितः त्रिदण्डं उपजीवति ॥ ४० ॥

 सुरान् आत्मानमात्मस्थं निह्नुते मां च धर्महा ।

 अविपक्व कषायोऽस्माद् अमुष्माच्च विहीयते ॥ ४१ ॥

 भिक्षोः धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।

 गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम् ॥ ४२ ॥

 ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भूतसौहृदम् ।

 गृहस्थस्य अपि ऋतौ गन्तुः सर्वेषां मदुपासनम् ॥ ४३ ॥

 इति मां यः स्वधर्मेण भजन् नित्यं अनन्यभाक् ।

 सर्वभूतेषु मद्‍भावो मद्‍भक्तिं विंदते दृढाम् ॥ ४४ ॥

 भक्त्योद्धव अनपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम् ।

 सर्व उत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मा उपयाति सः ॥ ४५ ॥

 इति स्वधर्मनिर्णिक्त सत्त्वो निर्ज्ञातमद्‌गतिः ।

 ज्ञानविज्ञान संपन्नो न चिरात् समुपैति माम् ॥ ४६ ॥

 वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचार लक्षणः ।

 स एव मद्‍भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः ॥ ४७ ॥

 एतत् ते अभिहितं साधो भवान् पृच्छति यच्च माम् ।

 यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात् परम् ॥ ४८ ॥

 

विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत्में कहीं भी अपने चित्तको लगाये नहीं। इस लोक और परलोकमें जो कुछ करने-पानेकी इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ २६ ॥ संन्यासी विचार करे कि आत्मामें जो मन, वाणी और प्राणोंका सङ्घातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ॥ २७ ॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्षकी भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमोंकी मर्यादामें बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नोंको छोड़-छाडक़र, वेद-शास्त्रके विधि-निषेधोंसे परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ २८ ॥ वह बुद्धिमान् होकर भी बालकोंके समान खेले। निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागलकी तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियोंका जानकार होकर भी पशुवृत्तिसे (अनियत आचारवान्) रहे ॥ २९ ॥ उसे चाहिये कि वेदोंके कर्मकाण्ड- भागकी व्याख्यामें न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्कसे बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ ३० ॥ वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मनमें किसी भी प्राणीसे उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणीको उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नतासे सह ले; किसीका अपमान न करे। प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीरके लिये किसीसे भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं ॥ ३१ ॥ जैसे एक ही चन्द्रमा जलसे भरे हुए विभिन्न पात्रोंमें अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियोंमें और अपनेमें भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतोंसे बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्थामें किसीसे भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध है) ॥ ३२ ॥

प्रिय उद्धव ! संन्यासीको किसी दिन यदि समयपर भोजन न मिले, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मनमें हर्ष और विषाद दोनों प्रकारके विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्धके अधीन हैं ॥ ३३ ॥ भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षासे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। प्राण रहनेसे ही तत्त्वका विचार होता है और तत्त्वविचारसे तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ॥ ३४ ॥ संन्यासीको प्रारब्धके अनुसार अच्छी या बुरी—जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसीसे पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायँ, उन्हींसे काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपनकी कल्पना न करे ॥ ३५ ॥ जैसे मैं परमेश्वर होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमोंका लीलासे ही आचरण करे। वह शास्त्रविधिके अधीन होकर— विधिकिङ्कर होकर न करे ॥ ३६ ॥ क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुषको भेदकी प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्माके साक्षात्कारसे नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेदकी प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसारके विषयोंके भोगका फल दु:ख-ही-दु:ख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्तिके साधनोंको न जानता हो तो भगवच्चिन्तनमें तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुकी शरण ग्रहण करे ॥ ३८ ॥ वह गुरुकी दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जबतक ब्रह्मका ज्ञान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही गुरुके रूपमें समझता हुआ उनकी सेवा करे ॥ ३९ ॥ किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहोंपर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथी बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदयमें न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासीका वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्मका सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओंको, अपने-आपको और अपने हृदयमें स्थित मुझको ठगनेकी चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्रके संन्यासीकी वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठता है ॥ ४०-४१ ॥ संन्यासीका मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थीका मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थका मुख्य धर्म है—प्राणियोंकी रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारीका मुख्य धर्म है— आचार्यकी सेवा ॥ ४२ ॥ गृहस्थ भी केवल ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीका सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियोंके प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभीको करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभावसे अपने वर्णाश्रमधर्मके द्वारा मेरी सेवामें लगा रहता है और समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४४ ॥ उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढऩेवाली अखण्ड भक्तिके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालनके द्वारा अन्त:करणको शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्यको—मेरे स्वरूपको जान लेता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियोंका धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठानमें मेरी भक्तिका पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ॥ ४७ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्मका पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्म-स्वरूपको किस प्रकार प्राप्त होता है ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

 

 श्रीभगवानुवाच -

 वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा ।

 वन एव वसेत् शांतः तृतीयं भागमायुषः ॥ १ ॥

 कन्दमूल फलैः वन्यैः मेध्यैः वृत्तिं प्रकल्पयेत् ।

 वसीत वल्कलं वासः तृण-पर्ण अजिनानि च ॥ २ ॥

 केश रोम नख-श्मश्रु मलानि बिभृयाद् दतः ।

 न धावेद् अप्सु मज्जेत त्रि कालं स्थण्डिलेशयः ॥ ३ ॥

 ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन् वर्षासु आसारषाड् जले ।

 आकण्थमग्नः शिशिरे एवंवृत्तः तपश्चरेत् ॥ ४ ॥

 अग्निपक्वं समश्नीयात् कालपक्वं अथापि वा ।

 उलूखल-अश्मकुट्टो वा दंतोलूखल एव वा ॥ ५ ॥

 स्वयं सञ्चिनुयात् सर्वं आत्मनो वृत्तिकारणम् ।

 देश काल बलाभिज्ञो नाददीतान् यदाऽऽहृतम् ॥ ६ ॥

 वन्यैः ह्चरु-पुरोडाशैः निर्वपेत् कालचोदितान् ।

 न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥ ७ ॥

 अग्निहोत्रं च दर्शश्च पौर्णमासश्च पूर्ववत् ।

 चातुर्मास्यानि च मुनेः आम्नातानि च नैगमैः ॥ ८ ॥

 एवं चीर्णेन तपसा मुनिः र्धमनिसंततः ।

 मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकाद् उपैति माम् ॥ ९ ॥

 यस्तु एतत्कृच्छ्रतः चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत् ।

 कामायाल्पीयसे युञ्ज्याद् बालिशः कोऽपरस्ततः ॥ १० ॥

 यदा असौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः ।

 आत्मन्यग्नीन् समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं समाविशेत् ॥ ११ ॥

 यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।

 विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः ॥ १२ ॥

 इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।

 अग्नीन् स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥ १३ ॥

 विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः ।

 विघ्नान् कुर्वन्त्ययं ह्यस्मान् आक्रम्य समियात् परम् ॥ १४ ॥

 बिभृयाच्चेन् मुनिर्वासः कौपीन् आच्छादनं परम् ।

 त्यक्तं न दण्डपात्राभ्यां अन्यत् किञ्चिद् अनापदि ॥ १५ ॥

 दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेत् जलम् ।

 सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ १६ ॥

 मौन-अनीहा-अनिलायामाः दण्डा वाक्-देह-चेतसाम् ।

 न ह्येते यस्य सन्त्यङ्ग वेणुभिः न भवेद् यतिः ॥ १७ ॥

 भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान् वर्जयन् चरेत् ।

 सप्तागारान् असङ्‌क्लृप्तान् तुष्येत् लब्धेन तावता ॥ १८ ॥

 बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः ।

 विभज्य पावितं शेषं भुञ्जीत-अशेषमाहृतम् ॥ १९ ॥

 एकश्चरेत् महीमेतां निःसङ्गः संयतेंद्रियः ।

 आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान् समदर्शनः ॥ २० ॥

 विविक्त-क्षेमशरणो मद्‍भावविमलाशयः ।

 आत्मानं चिन्तयेदेकं अभेदेन मया मुनिः ॥ २१ ॥

 अन्वीक्षेतात्मनो बंधं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया ।

 बंध इंद्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः ॥ २२ ॥

 तस्मान् नियम्य षड्वर्गं मद्‍भावेन चरेन् मुनिः ।

 विरक्तः क्षुद्रकामेभ्यो लब्ध्वा आत्मनि सुखं महत् ॥ २३ ॥

 पुरग्रामव्रजान् सार्थान् भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत् ।

 पुण्यदेश सरित्-शैल वन-आश्रमवतीं महीम् ॥ २४ ॥

 वानप्रस्थाश्रमपदेषु अभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत् ।

 संसिध्यति आशु-असंमोहः शुद्धसत्त्वः शिलान्धसा ॥ २५ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रममें जाना चाहे, तो अपनी पत्नीको पुत्रोंके हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्तसे अपनी आयुका तीसरा भाग वनमें ही रहकर व्यतीत करे ॥ १ ॥ उसे वनके पवित्र कन्द-मूल और फलोंसे ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्रकी जगह वृक्षोंकी छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछालासे ही काम निकाल ले ॥ २ ॥ केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ीरूप शरीरके मलको हटावे नहीं। दातुन न करे। जलमें घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरतीपर ही पड़ रहे ॥ ३ ॥ ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्रि तपे, वर्षा ऋतुमें खुले मैदानमें रहकर वर्षाकी बौछार सहे। जाड़ेके दिनोंमें गलेतक जलमें डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ ४ ॥ कन्द-मूलोंको केवल आगमें भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदिके द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटनेकी आवश्यकता हो तो ओखलीमें या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतोंसे ही चबा-चबाकर खा ले ॥ ५ ॥ वानप्रस्थाश्रमीको चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातोंको जानकर अपने जीवन-निर्वाहके लिये स्वयं ही सब प्रकारके कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदिसे अनभिज्ञ लोगोंसे लाये हुए अथवा दूसरे समयके सञ्चित पदार्थोंको अपने काममें न ले [*] ॥ ६ ॥ नीवार आदि जंगली अन्नसे ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हींसे समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जानेपर वेदविहित पशुओंद्वारा मेरा यजन न करे ॥ ७ ॥ वेदवेत्ताओंने वानप्रस्थीके लिये अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदिका वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थोंके लिये है ॥ ८ ॥ इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जानेके कारण वानप्रस्थीकी एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियोंके लोकमें जाता है और वहाँसे फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ॥ ९ ॥ प्रिय उद्धव ! जो पुरुष बड़े कष्टसे किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान् तपस्याको स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलोंकी प्राप्तिके लिये करता है, उससे बढक़र मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्याका अनुष्ठान निष्कामभावसे ही करना चाहिये ॥ १० ॥

प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नियमोंका पालन करनेमें असमर्थ हो जाय, बुढ़ापेके कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्रियोंको भावनाके द्वारा अपने अन्त:करणमें आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्रिमें प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ ११ ॥ यदि उसकी समझमें यह बात आ जाय कि काम्य कर्मोंसे उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकोंके समान ही दु:खपूर्ण हैं और मनमें लोक-परलोकसे पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्रियोंका परित्याग करके संन्यास ले ले ॥ १२ ॥ जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधिके अनुसार आठों प्रकारके श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञसे मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज् को  दे दे। यज्ञाग्नियों को अपने प्राणोंमें लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियोंकी अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियोंका रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहणमें विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे ! यह तो हमलोगोंकी अवहेलनाकर, हमलोगोंको लाँघकर परमात्माको प्राप्त होने जा रहा है’ ॥ १४ ॥

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु  के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्तिकालको छोडक़र सदाके लिये है ॥ १५ ॥ नेत्रोंसे धरती देखकर पैर रखे, कपड़ेसे छानकर जल पिये मुँहसे प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्यसे पवित्र हुई ही निकाले और शरीरसे जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक— सोच-विचार कर ही करे ॥ १६ ॥ वाणीके लिये मौन, शरीरके लिये निश्चेष्ट स्थिति और मनके लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीरपर बाँसके दण्ड धारण करनेसे दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ॥ १७ ॥ संन्यासीको चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितोंको छोडक़र चारों वर्णोंकी भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरोंसे जितना मिल जाय, उतनेसे ही सन्तोष कर ले ॥ १८ ॥ इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्तीके बाहर जलाशयपर जाय, वहाँ हाथ- पैर धोकर जलके द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले, फिर शास्त्रोक्त पद्धतिसे जिन्हें भिक्षाका भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले; दूसरे समयके लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ १९ ॥ संन्यासीको पृथ्वीपर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वशमें हों। वह अपने-आपमें ही मस्त रहे, आत्म-प्रेममें ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी धैर्य रखे और सर्वत्र समानरूपसे स्थित परमात्माका अनुभव करता रहे ॥ २० ॥ संन्यासीको निर्जन और निर्भय एकान्त-स्थानमें रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावनासे विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्डके रूपमें चिन्तन करे ॥ २१ ॥ वह अपनी ज्ञाननिष्ठासे चित्तके बन्धन और मोक्षपर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियोंका विषयोंके लिये विक्षिप्त होना—चञ्चल होना बन्धन है और उनको संयममें रखना ही मोक्ष है ॥ २२ ॥ इसलिये संन्यासीको चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको जीत ले, भोगोंकी क्षुद्रता समझकर उनकी ओरसे सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आपमें ही परम आनन्दका अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावनासे भरकर पृथ्वीमें विचरता रहे ॥ २३ ॥ केवल भिक्षाके लिये ही नगर, गाँव, अहीरोंकी बस्ती या यात्रियोंकी टोलीमें जाय। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमोंसे पूर्ण पृथ्वीमें बिना कहीं ममता जोड़े घूमता- फिरता रहे ॥ २४ ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियोंके आश्रमसे ही ग्रहण करे। क्योंकि कटे हुए खेतोंके दानेसे बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्तको शुद्ध कर देती है और उससे बचाखुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥

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[*] अर्थात् मुनि इस बातको जानकर कि अमुक पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं, स्वयं ही नवीन-नवीन कन्द-मूल-फल आदिका सञ्चय करे। देश-कालादिसे अनभिज्ञ अन्य जनोंके लाये हुए अथवा कालान्तरमें सञ्चय किये हुए पदार्थोंके सेवनसे व्याधि आदिके कारण तपस्यामें विघ्र होनेकी आशंका है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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