गुरुवार, 17 जून 2021

भिक्षु गीता (पोस्ट०१)


 

|| श्रीहरि: ||

 

भिक्षु गीता  (पोस्ट०१)

 

द्विज उवाच

 

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-

र्न देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः

मनः परं कारणमामनन्ति

संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत्   ४३

मनो गुणान्वै सृजते बलीय-

स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि

शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि

तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति   ४४

अनीह आत्मा मनसा समीहता

हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे

मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्-

जुषन्निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ   ४५

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च

श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि

सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः

परो हि योगो मनसः समाधिः ४६

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं

दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्

असंयतं यस्य मनो विनश्यद्-

दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः ४७

 

(ब्राह्मण कहता है-) मेरे सुख अथवा दु:ख  का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसी ने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियों की सृष्टि की है। उन वृत्तियों के अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकार के कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही जीवकी विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होने के कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥ दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्‌ में लग जाय। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मों से अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से

 



मंगलवार, 15 जून 2021

पुरुषसूक्त


 


|| श्रीहरि: ||


पुरुषसूक्त

(शुक्लयजुर्वेदीय)


वेदों में प्राप्त सूक्तों में  ‘पुरुषसूक्त' का अत्यन्त महनीय स्थान है। आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दृष्टिसे इस सूक्त का बड़ा महत्व है। इसीलिये यह सूक्त ऋग्वेद (१०वें मण्डल का ९०वाँ सूक्त), यजुर्वेद (३१वाँ अध्याय), अथर्ववेद (१९वें काण्डका छठा सूक्त), तैत्तिरीयसंहिता, शतपथब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदिमें किंचित् शब्दान्तर के साथ प्राय: यथावत् प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुषसूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। पुरुषसूक्त में सोलह मन्त्र हैं। ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण तथा देवता 'पुरुष' हैं। वेदोक्त पूजा-अर्चा में पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों का प्रयोग भगवान् के षोडशोपचार-पूजन तथा यजन में सर्वत्र होता है। इस सूक्त में विराट् पुरुष परमात्माकी महिमा निरूपित है और सृष्टि-निरूपणकी प्रक्रिया बतायी गयी है। उस विराट् पुरुषको अनन्त सिर, नेत्र और चरणवाला बताया गया है 'सहस्रशीर्षा पुरुषः।' इस सूक्तमें बताया गया है कि यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उनको एकपाद्विभूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ,कैलास,साकेत आदि) हैं। इस सूक्त में यज्ञपुरुष नारायण की यज्ञद्वारा यजनकी प्रक्रिया भी बतायी गयी है। यहाँपर शुक्लयजुर्वेदीय तथा मुद्गलोपनिषद में प्राप्त पुरुषसूक्त का भावार्थ दिया जा रहा है—


हरिः ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

स भूमिꣳ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥

पुरुष एवेदꣳ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दाꣳसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याꣳ शूद्रो अजायत ॥ ११॥

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳫ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।

देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥

                                    .........[शु०यजु० ३१।१–१६]


उन परम पुरुषके सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्वको समस्त भूमि (पूरे स्थान)-को सब ओरसे व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्डमें व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं ॥१॥ यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओंके तथा जो अन्नसे (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर--शासक) हैं ॥ २ ॥ यह भूत, भविष्य, वर्तमानसे सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है। वे अपने इस विभूति-विस्तारसे भी महान् हैं। उन परमेश्वरकी एकपाद्विभूति (चतुर्थांश)-में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूतिमें शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं ॥३॥ वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्वके रूपमें उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पादसे वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं।॥ ४॥ उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ)-रूपसे उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बादमें उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये॥५॥ जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुषसे उसीने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायुमें, वनमें एवं ग्राममें रहनेयोग्य पशु उत्पन्न किये॥६॥ उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसीसे यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसीसे सभी छन्द भी उत्पन्न हुए॥७॥उसीसे घोड़े उत्पन्न हुए, उसीसे गायें उत्पन्न हुईं और उसीसे भेड़ बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतोंवाले हैं॥८॥ देवताओं, साध्यों तथा ऋषियोंने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ पुरुषको कुशापर अभिषिक्त किया और उसीसे उसका यजन किया॥९॥ पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं? ॥१०॥ ब्राह्मण इसका मुख था (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरोंसे शूद्रवर्ण प्रकट हुआ॥११॥ इस परम पुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए, कानोंसे वायु और प्राण तथा मुखसे अग्नि की उत्पत्ति हुई ॥१२॥ उन्हीं परम पुरुषकी नाभि से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुषमें ही कल्पित हुए।।। १३ ।। जिस पुरुषरूप हविष्य से देवोंने यज्ञका विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी॥१४॥ देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशुका बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकारसे) समिधाएँ बनीं ॥ १५ ॥ देवताओंने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञके द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मो के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोकका सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मकरूप विराट् पुरुष की करबद्ध स्तुति करते हैं। ॥ १६॥


                         .....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से




गुरुवार, 20 मई 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण-- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- चौथा अध्याय


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- चौथा अध्याय

 

श्रीमद्भागवत का स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ता के लक्षण,

श्रवणविधि और माहात्म्य

 

ऋषयः ऊचुः -

 साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः ।

 श्रीभागवमाहात्म्यं अपूर्वं त्वन् मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥

 तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद ।

 तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना ॥ २ ॥

 

 सूत उवाच -

 श्रीमद् भागवतस्याथ श्रीमद्‌भगवतः सदा ।

 स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥ ३ ॥

 श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम् ।

 समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत् ॥ ४ ॥

 ज्ञानविज्ञान भक्त्यङ्‌ग चतुष्टयपरं वचः ।

 मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत् ॥ ५ ॥

 प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः ।

 ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता ॥ ६ ॥

 तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः ।

 ते एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ॥ ७ ॥

 मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च ।

 परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः ॥ ८ ॥

 ग्रन्तोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः ।

 कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः ॥ ९ ॥

 श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद् विष्णुकथाश्रयाः ।

 प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा पताः ॥ १० ॥

 प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा ।

 अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः ॥ ११ ॥

 अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती ।

 सः चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः ॥ १२ ॥

 हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात् ।

 दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः ॥ १३ ॥

 शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासम् श्रोतॄंश्च हर्षयन् ।

 सुपाठितः शुको यद्वत् शिक्षकं पार्श्वगानपि ॥ १४ ॥

 शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम् ।

 श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा ॥ १५ ॥

 यस्तुदन् रसिकान् श्रोतॄन् व्रौत्यज्ञो वृको हि सः ।

 वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् हथा ॥ १६ ॥

 भूरुण्डः शिक्षयेदन्यात् श्रुत्वा न स्वयमाचरेत् ।

 यथा हिमवतः श्रृंगे भूरुण्डाखो विहंगमः ॥ १७ ॥

 सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः ।

 स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः ॥ १८ ॥

 स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः ।

 यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्‌युतम् ॥ १९ ॥

 अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्‌गखरादयः ।

 विज्ञेयास्तत्तदाचारैः तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः ॥ २० ॥

 यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिवत्

     त्यक्तान्यवादो हरेः ।

 लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो

     नम्रोऽथ कॢपाञ्जलिः ।

 शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः

     प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः ।

 नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः

     श्रोता स वै वक्तृभिः ॥ २१ ॥

 भावगन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु स्मानुकम्पो यः ।

 बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः ॥ २२ ॥

 अथ भारतभृस्थाने श्रीभागवतसेवने ।

 विधिं श्रृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः ॥ २३ ॥

 राजसं सत्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा ।

 चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम् ॥ २४ ॥

 सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा ।

 सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम् ॥ २५ ॥

 मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम् ।

 सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम् ॥ २६ ॥

 तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम् ।

 विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम् ॥ २७ ॥

 वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम् ।

 सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम् ॥ २८ ॥

 पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम् ।

 तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंखय्या ॥ २९ ॥

 अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया

 यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः ॥ ३० ॥

 ये श्रीकृष्णविहारैक भजनास्वादलोलुपाः ।

 मुक्तावपि निराकाङ्‌क्षाः तेषां भागवतं धनम् ॥ ३१ ॥

 येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्‌क्षिणः ।

 तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्‍नतः ॥ ३२ ॥

 ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः ।

 तेषां तु कर्म मार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ ॥ ३३ ॥

 सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा ।

 तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्‌भागवती कथा ॥ ३४ ॥

 धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान् ।

 असापत्‍न्यं च राज्यं च दद्यात् भागवती कथा ॥ ३५ ॥

 इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान् ।

 श्रीभागवतसंगेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३६ ॥

 यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः ।

 तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च ॥ ३७ ॥

 तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम् ।

 श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम् ॥ ३८ ॥

 कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः ।

 यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते ॥ ३९ ॥

 उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः ।

 किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिः विलम्बेनापि जायते ॥ ४० ॥

 धनार्थिनस्तु संसिद्धिः विधिसंपूर्णतावशात् ।

 कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः ॥ ४१ ॥

 आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम् ।

 स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः ॥ ४२ ॥

 पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः ।

 ब्रूयाद् वा श्रृणुयाद् वापि श्रीमद्‌भागवतं मुदा ॥ ४३ ॥

 पयसा वा हविषेण मौनं भोजमाचरेत् ।

 ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम् ॥ ४४ ॥

 कथान्ते कीर्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत् ।

 ब्रह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत् ॥ ४५ ॥

 गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत् ।

 एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ४६ ॥

 दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम् ।

 परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम् ॥ ४७ ॥

 कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम् ।

 श्रीमद्‌भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ ४८ ॥

 

शौनकादि ऋषियोंने कहा—सूतजी ! आपने हमलोगोंको बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकालतक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुखसे श्रीमद्भागवतका अपूर्व माहात्म्य सुना है ॥ १ ॥ सूतजी ! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवतका स्वरूप क्या है ? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक-संख्या कितनी है ? किस विधिसे उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा श्रीमद्भागवतके वक्ता और श्रोताके क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये ॥ २ ॥

सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान्‌का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णमें जिनकी लगन लगी है, उन भावुक भक्तोंके हृदयमें जो भगवान्‌के माधुर्य भावको अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो ॥ ४ ॥ जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अङ्गभूत साधनचतुष्टयको प्रकाशित करनेवाला है तथा जो मायाका मर्दन करनेमें समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो ॥ ५ ॥ श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है ? पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्माजीके प्रति चार श्लोकोंमें इसका दिग्दर्शन- मात्र कराया था ॥ ६ ॥ विप्रगण ! इस भागवतकी अपार गहराईमें डुबकी लगाकर इसमेंसे अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेमें केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं ॥ ७ ॥ परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्योंका हितसाधन करनेके लिये श्रीव्यासजीने परीक्षित्‌ और शुकदेवजीके संवादके रूपमें जिसका गान किया है, उसीका नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थकी श्लोकसंख्या अठारह हजार है। इस भवसागरमें जो प्राणी कलिरूपी ग्राहसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है ॥ ८-९ ॥

अब भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कथाका आश्रय लेनेवाले श्रोताओंका वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकारके माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) ॥ १० ॥ प्रवर श्रोताओंके ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवरके भी ‘वृक’, भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं ॥ ११ ॥ ‘चातक’ कहते हैं पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते हुए जलमें ही स्पृहा रखता है, दूसरे जलको छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोडक़र केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रोंके श्रवणका व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है ॥ १२ ॥ जैसे हंस दूधके साथ मिलकर एक हुए जलसे निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानीको छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रोंका श्रवण करके भी उसमेंसे सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणीसे शिक्षकको तथा पास आनेवाले दूसरे लोगोंको भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथा- वाचक व्यासके मुँहसे उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणीमें पुन: सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओंको अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ॥ १४ ॥ जैसे क्षीरसागरमें मछली मौन रहकर अपलक आँखोंसे देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निॢनमेष नयनोंसे देखता हुआ मुँहसे कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारसका ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है ॥ १५ ॥ (ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओंके भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेडिय़ेको। जैसे भेडिय़ा वनके भीतर वेणुकी मीठी आवाज सुननेमें लगे हुए मृगोंको डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवणके समय रसिक श्रोताओंको उद्विग्र करता हुआ बीच-बीचमें जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है ॥ १६ ॥ हिमालयके शिखरपर एक भूरुण्ड जातिका पक्षी होता है। वह किसीके शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेशकी बात सुनकर उसे दूसरोंको तो सिखाये पर स्वयं आचरणमें न लाये, ऐसे श्रोताको ‘भूरुण्ड’ कहते हैं ॥ १७ ॥ ‘वृष’ कहते हैं बैलको। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनोंको वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तुका विचार करनेमें उसकी बुद्धि अंधी— असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है ॥ १८ ॥ जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुणसे युक्त आमको भी छोडक़र केवल नीमकी ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान्‌की मधुर कथाको छोडक़र उसके विपरीत संसारी बातोंमें रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं ॥ १९ ॥ ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकारके श्रोताओंके ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुतसे भेद हैं, इन सब भेदोंको उन-उन श्रोताओंके स्वाभाविक आचार-व्यवहारोंसे परखना चाहिये ॥ २० ॥ जो वक्ताके सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातोंको छोडक़र केवल श्रीभगवान्‌की लीला-कथाओंको ही सुननेकी इच्छा रखे, समझनेमें अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभावसे उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवाय, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे—जो बात समझमें न आये, पूछे और पवित्र भावसे रहे तथा श्रीकृष्णके भक्तोंपर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोताको वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ॥ २१ ॥ अब वक्ताके लक्षण बतलाते हैं—जिसका मन सदा भगवान्‌में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनोंपर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियोंसे तत्त्वका बोध करा देनेमें चतुर हो, उसी वक्ताका मुनिलोग भी सम्मान करते हैं ॥ २२ ॥

विप्रगण ! अब मैं भारतवर्षकी भूमिपर श्रीमद्भागवतकथाका सेवन करनेके लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधिके पालनसे श्रोताकी सुख-परम्पराका विस्तार होता है ॥ २३ ॥ श्रीमद्भागवतका सेवन चार प्रकारका है—सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण ॥ २४ ॥ जिसमें यज्ञकी भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियोंके कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रमसे बहुत उतावलीके साथ सात दिनोंमें ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवतका सेवन ‘राजस’ है ॥ २५ ॥ एक या दो महीनेमें धीरे-धीरे कथाके रसका आस्वादन करते हुए बिना परिश्रमके जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्दको बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है ॥ २६ ॥ तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दिया जाय और याद आनेपर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्षतक आलस्य और अश्रद्धाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेकी अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है ॥ २७ ॥ जब वर्ष, महीना और दिनोंके नियमका आग्रह छोडक़र सदा ही प्रेम और भक्तिके साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है ॥ २८ ॥ राजा परीक्षित्‌ और शुकदेवके संवादमें भी जो भागवतका सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनोंकी बात आती है, वह राजाकी आयुके बचे हुए दिनोंकी संख्याके अनुसार है, सप्ताह-कथाका नियम करनेके लिये नहीं ॥ २९ ॥

भारतवर्षके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण- सेवन अपनी रुचिके अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवतका सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये ॥ ३० ॥ जो केवल श्रीकृष्णकी लीलाओंके ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादनके लिये लालायित रहते और मोक्षकी भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है ॥ ३१ ॥ तथा जो संसारके दु:खोंसे घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोगकी ओषधि है। अत: इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये ॥ ३२ ॥ इनके अतिरिक्त जो लोग विषयोंमें ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखोंकी ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुगमें सामर्थ्य, धन और विधि-विधानका ज्ञान न होनेके कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशामें उन्हें भी सब प्रकारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ यह श्रीमद्भागवत- की कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है ॥ ३५ ॥ सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसारमें मनोवाञ्छित उत्तम भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीमद्भागवतके ही सङ्गसे श्रीहरिके परमधामको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३६ ॥

जिनके यहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथाके श्रवणमें लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चाहिये ॥ ३७ ॥ उन्हींके अनुग्रहसे सहायता करनेवाले पुरुषको भी भागवतसेवन का पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओंकी होती है—श्रीकृष्णकी और धनकी। श्रीकृष्णके सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धनके अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है ॥ ३८ ॥ श्रोता और वक्ता भी दो प्रकारके माने गये हैं, एक श्रीकृष्णको चाहनेवाले और दूसरे धनको। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथामें रस मिलता है, अत: सुखकी वृद्धि होती है ॥ ३९ ॥ यदि दोनों विपरीत विचारके हों तो रसाभास हो जाता है, अत: फलकी हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्णको चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होनेपर भी सिद्धि अवश्य मिलती है ॥ ४० ॥ पर धनार्थीको तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठानका विधि- विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्णकी चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधिमें कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदयमें प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है ॥ ४१ ॥ सकाम पुरुषको कथाकी समाप्तिके दिनतक स्वयं सावधानीके साथ सभी विधियोंका पालन करना चाहिये। (भागवतकथाके श्रोता और वक्ता दोनोंके ही पालन करनेयोग्य विधि यह है—) प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान्‌का चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे श्रीमद्भागवतकी पुस्तक और गुरुदेव (व्यास)का पूजन करे। इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा स्वयं कहे अथवा सुने ॥ ४२-४३ ॥ दूध या खीर का मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्यका पालन और भूमिपर शयन करे, क्रोध और लोभ आदिको त्याग दे ॥ ४४ ॥ प्रतिदिन कथाके अन्तमें कीर्तन करे और कथासमाप्तिके दिन रात्रिमें जागरण करे। समाप्ति होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे सन्तुष्ट करे ॥ ४५ ॥ कथा-वाचक गुरुको वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करनेपर मनुष्यको स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह सब मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है। परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है, वह श्रीमद्भागवतकी कथामें शोभा नहीं देता ॥ ४६-४७ ॥ श्रीशुकदेवजीके मुखसे कहा हुआ यह श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुगमें साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

श्रीमद् भागवतमाहात्म्ये भागवत श्रोतृवक्तृ लक्षणविधिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

 

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य समाप्त

 

 ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



बुधवार, 19 मई 2021

कृष्णाय तुभ्यं नमः

 


कृष्णाय तुभ्यं नमः

 

वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्बिभ्रते

दैत्यान् दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।

पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते

म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।

 

श्रीकृष्ण ! आपने मत्स्यरूप धारणकर प्रलयसमुद्रसे डूबे हुए वेदोंका उद्धार किया, समुद्र-मन्थनके समय महाकुर्म बनकर पृथ्वीमण्डलको पीठपर धारण किया, महावराहके रूपमें कारणार्णवमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया, नृसिंहके रूपमें हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंका विदारण किया, वामनके रूपमें राजा बलिको छला, परशुरामके रूपमें क्षत्रिय जातिका संहार किया, श्रीरामके रूपमें महावली रावणपर विजय प्राप्त की, श्रीबलरामके रूपमें हलको शस्त्ररूपमें धारण किया, भगवान् बुद्धके रूपमें करुणाका विस्तार किया था तथा कल्किके रूपमें म्लेच्छोंको मूर्छित करेंगे । इस प्रकार दशावतारके रूपमें प्रकट आपकी मैं वन्दना करता हूँ ।

(‘कल्याणपत्रिका; वर्ष ६६, संख्या २ : गीताप्रेस, गोरखपुर)



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