गुरुवार, 12 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

रसमात्राद् विकुर्वाणात् अम्भसो दैवचोदितात् ।
गन्धमात्रं अभूत् तस्मात् पृथ्वी घ्राणस्तु गन्धगः ॥ ४४ ॥
करम्भपूतिसौरभ्य शान्तोग्राम्लादिभिः पृथक् ।
द्रव्यावयववैषम्याद् गन्ध एको विभिद्यते ॥ ४५ ॥
भावनं ब्रह्मणः स्थानं धारणं सद्विशेषणम् ।
सर्वसत्त्वगुणोद्भेादः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ॥ ४६ ॥

इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जल के विकृत होनेपर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्धको ग्रहण करानेवाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुई ॥ ४४ ॥ गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्यभागोंकी न्यूनाधिकतासे वह मिश्रितगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकारका हो जाता है ॥ ४५ ॥ प्रतिमादिरूपसे ब्रह्मकी साकार-भावनाका आश्रय होना, जल आदि कारण-तत्त्वोंसे भिन्न किसी दूसरे आश्रयकी अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थोंको धारण करना, आकाशादिका अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदोंको सिद्ध करना) तथा परिणामविशेषसे सम्पूर्ण प्राणियोंके [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणोंको प्रकट करना—ये पृथ्वीके कार्यरूप लक्षण हैं ॥ ४६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 11 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

रूपमात्राद् विकुर्वाणात् तेजसो दैवचोदितात् ।
रसमात्रं अभूत् तस्मात् अम्भो जिह्वा रसग्रहः ॥ ४१ ॥
कषायो मधुरस्तिक्तः कट्वम्ल इति नैकधा ।
भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ॥ ४२ ॥
क्लेदनं पिण्डनं तृप्तिः प्राणनाप्यायनोन्दनम् । 
तापापनोदो भूयस्त्वं अम्भसो वृत्तयस्त्विमाः ॥ ४३ ॥

फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होनेपर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रसको ग्रहण करानेवाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई ॥ ४१ ॥ रस अपने शुद्ध स्वरूपमें एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थोंके संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है ॥ ४२ ॥ गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जानेपर भी वहाँ बार-बार पुन: प्रकट हो जाना—ये जल की वृत्तियाँ हैं ॥ ४३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 10 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

वायोश्च स्पर्शतन्मात्राद् रूपं दैवेरितादभूत् ।
समुत्थितं ततस्तेजः चक्षू रूपोपलम्भनम् ॥ ३८ ॥
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।
तेजस्त्वं तेजसः साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तयः ॥ ३९ ॥
द्योतनं पचनं पानं अदनं हिममर्दनम् ।
तेजसो वृत्तयस्त्वेताः शोषणं क्षुत्तृडेव च ॥ ४० ॥

तदनन्तर दैवकी प्रेरणा से स्पर्शतन्मात्रविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उस से रूप तन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध करानेवाली नेत्रेन्द्रिय का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ३८ ॥ साध्वि ! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना—द्रव्यके अङ्गरूप से प्रतीत होना, द्रव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिमाण आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना—ये सब रूपतन्मात्र की वृत्तियाँ हैं ॥३९॥ चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा करना और उनकी निवृत्तिके लिये भोजन एवं जलपान कराना—ये तेजकी वृत्तियाँ हैं ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 9 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

तामसाच्च विकुर्वाणाद् भगवद्‌वीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रं अभूत् तस्मात् नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ॥ ३२ ॥
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिङ्गत्वमेव च ।
तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ॥ ३३ ॥
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥ ३४ ॥
नभसः शब्दतन्मात्रात् कालगत्या विकुर्वतः ।
स्पर्शोऽभवत्ततो वायुः त्वक् स्पर्शस्य च सङ्ग्रहः ॥ ३५ ॥
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।
एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥ ३६ ॥
चालनं व्यूहनं प्राप्तिः नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः ।
सर्वेन्द्रियाणां आत्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ॥ ३७ ॥

भगवान्‌ की चेतनशक्ति की प्रेरणा से तामस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ अर्थका प्रकाशक होना, ओटमें खड़े हुए वक्ताका भी ज्ञान करा देना और आकाशका सूक्ष्म रूप होना विद्वानोंके मतमें यही शब्दके लक्षण हैं ॥ ३३ ॥ भूतोंको अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मनका आश्रय होना—ये आकाशके वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं ॥ ३४ ॥
फिर शब्दतन्मात्रके कार्य आकाशमें कालगतिसे विकार होनेपर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्शका ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ॥ ३५ ॥ कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना—ये स्पर्श के लक्षण हैं ॥ ३६ ॥ वृक्ष की शाखा आदि को हिलाना, तृणादि को इकट्ठाकर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना—ये वायुकी वृत्तियों के लक्षण हैं ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 8 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् ।
शान्तघोरविमूढत्वं इति वा स्यादहङ्कृतेः ॥ २६ ॥
वैकारिकाद् विकुर्वाणात् मनस्तत्त्वमजायत ।
यत्सङ्कल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसम्भवः ॥ २७ ॥
यद् विदुर्ह्यनिरुद्धाख्यं हृषीकाणां अधीश्वरम् ।
शारदेन्दीवरश्यामं संराध्यं योगिभिः शनैः ॥ २८ ॥
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् बुद्धितत्त्वमभूत्सति ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानं इन्द्रियाणामनुग्रहः ॥ २९ ॥
संशयोऽथ विपर्यासो निश्चयः स्मृतिरेव च ।
स्वाप इत्युच्यते बुद्धेः लक्षणं वृत्तितः पृथक् ॥ ३० ॥
तैजसानि इन्द्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागशः ।
प्राणस्य हि क्रियाशक्तिः बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ॥ ३१ ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं) इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से करणत्व और पञ्चभूतरूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं ॥ २६ ॥ उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकारमें से वैकारिक अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके सङ्कल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है ॥ २७ ॥ यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्यामवर्ण वाले इन अनिरुद्धजी की शनै:-शनै: मन को वशीभूत करके आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ 
साध्वि ! फिर तैजस अहंकारमें विकार होनेपर उससे बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। वस्तुका स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियोंके व्यापारमें सहायक होना—पदार्थोंका विशेष ज्ञान करना—ये बुद्धिके कार्य हैं ॥ २९ ॥ वृत्तियोंके भेदसे संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धिके ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्र’ है ॥ ३० ॥ इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकारका ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञानके विभागसे उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राणकी शक्ति है और ज्ञान बुद्धिकी ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 7 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छं शान्तं भगवतः पदम् ।
यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम् ॥ २१ ॥
स्वच्छत्वं अविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतसः ।
वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथापां प्रकृतिः परा ॥ २२ ॥
महत्तत्त्वाद् विकुर्वाणाद् भगवद्‌वीर्यसम्भवात् ।
क्रियाशक्तिः अहङ्कारः त्रिविधः समपद्यत ॥ २३ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भवः ।
मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥ २४ ॥
सहस्रशिरसं साक्षाद् यं अनन्तं प्रचक्षते ।
सङ्कर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ॥ २५ ॥

जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान्‌की उपलब्धिका स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसीको ‘वासुदेव’ कहते हैं [*] ॥ २१ ॥ जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थोंके संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरङ्गादिरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविकी अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्व ही वृत्तियोंसहित चित्त का लक्षण कहा गया है ॥ २२ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ की वीर्यरूप चित्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ । वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकारका है। उसीसे क्रमश: मन, इन्द्रियों और पञ्चमहाभूतोंकी उत्पत्ति हुई ॥ २३-२४ ॥ इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकारको ही पण्डितजन साक्षात् ‘सङ्कर्षण’ नामक सहस्र सिरवाले अनन्तदेव कहते हैं ॥ २५ ॥ 
...........................................................
[*] जिसे अध्यात्ममें चित्त कहते हैं, उसीको अधिभूतमें महत्तत्त्व कहा जाता है। चित्तमें अधिष्ठाता ‘क्षेत्रज्ञ’ और उपास्यदेव ‘वासुदेव’ हैं। इसी प्रकार अहंकारमें अधिष्ठाता ‘रुद्र’ और उपास्यदेव ‘सङ्कर्षण’ हैं, बुद्धिमें अधिष्ठाता ‘ब्रह्मा’ और उपास्यदेव ‘प्रद्युम्र’ हैं तथा मनमें अधिष्ठाता ‘चन्द्रमा’ और उपास्यदेव ‘अनिरुद्ध’ हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 6 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् ।
अहङ्कारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ॥ १६ ॥
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ॥ १७ ॥
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवान् आत्ममायया ॥ १८ ॥
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परः पुमान् ।
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥ १९ ॥
विश्वमात्मगतं व्यञ्जन् कूटस्थो जगदङ्कुरः ।
स्वतेजसा पिबत् तीव्रं आत्मप्रस्वापनं तमः ॥ २० ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं) कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुषका प्रभाव अर्थात् ईश्वरकी संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे मायाके कार्यरूप देहादिमें आत्मत्वका अभिमान करके अहंकारसे मोहित और अपनेको कर्ता माननेवाले जीवको निरन्तर भय लगा रहता है ॥ १६ ॥ मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणासे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृतिमें गति उत्पन्न होती है, वास्तवमें वे पुरुषरूप भगवान्‌ ही ‘काल’ कहे जाते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान्‌ ही पचीसवें तत्त्व हैं ॥ १८ ॥ जब परमपुरुष परमात्मा ने जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥ लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत् के अङ्कुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 5 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

देवहूतिरुवाच –
प्रकृतेः पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।
ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥ ९ ॥

श्रीभगवानुवाच –
यत्तत् त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुः अविशेषं विशेषवत् ॥ १० ॥
पञ्चभिः पञ्चभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।
एतत् चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ॥ ११ ॥
महाभूतानि पञ्चैव भूरापोऽग्निर्मरुन्नभः ।
तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ॥ १२ ॥
इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग् दृक् रसननासिकाः ।
वाक्करौ चरणौ मेढ्रं पायुर्दशम उच्यते ॥ १३ ॥
मनो बुद्धिरहङ्कारः चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ॥ १४ ॥
एतावानेव सङ्ख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह ।
सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पञ्चविंशकः ॥ १५ ॥

देवहूतिने कहा—पुरुषोत्तम ! इस विश्वके स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझसे कहिये ॥ ९ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहा—जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है,उस प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं॥१० ॥
पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्त:करण और दस इन्द्रिय—इन चौबीस तत्त्वोंके समूहको विद्वान् लोग प्रकृतिका कार्य मानते हैं ॥ ११ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द—ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं ॥ १२ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु—ये दस इन्द्रियाँ हैं ॥ १३ ॥ मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार—इन चार के रूप में एक ही अन्त:करण अपनी सङ्कल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूपा चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेशस्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है । इसके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है ॥ १५ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 4 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच ।

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ।
यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ॥ १ ॥
ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् ।
यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रन्थिभेदनम् ॥ २ ॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिः विश्वं येन समन्वितम् ॥ ३ ॥
स एष प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमयीं विभुः ।
यदृच्छयैवोपगतां अभ्यपद्यत लीलया ॥ ४ ॥
गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः ।
विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगूहया ॥ ५ ॥
एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान् ।
कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते ॥ ६ ॥
तदस्य संसृतिर्बन्धः पारतन्त्र्यं च तत्कृतम् ।
भवति अकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः ॥ ७ ॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः ।
भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुषं प्रकृतेः परम् ॥ ८ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—माता जी ! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वोंके  अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है ॥ १ ॥ आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदयग्रन्थि का छेदन करनेवाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं । उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ ॥ २ ॥ यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है । वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्त:करण में स्फुरित होने वाला और स्वयंप्रकाश है ॥ ३ ॥ उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया ॥ ४ ॥ लीला- परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजाकी सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान- को आच्छादित करनेवाली उसकी आवरणशक्तिसे मोहित हो गया, अपने स्वरूपको भूल गया ॥ ५ ॥ इस प्रकार अपनेसे भिन्न प्रकृतिको ही अपना स्वरूप समझ लेनेसे पुरुष प्रकृतिके गुणों द्वारा किये जानेवाले कर्मोंमें अपनेको ही कर्ता मानने लगता है ॥ ६ ॥ इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है ॥ ७ ॥ कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दु:खों के भोगने में कारण मानते हैं ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 3 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

मद्भियाद् वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भभयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निः मृत्युश्चरति मद्भियात् ॥ ४२ ॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्ति अकुतोभयम् ॥ ४३ ॥
एतावान् एव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥ ४४ ॥

मेरे भयसे यह वायु चलती है, मेरे भयसे सूर्य तपता है, मेरे भयसे इन्द्र वर्षा करता और अग्रि जलाती है तथा मेरे ही भयसे मृत्यु अपने कार्यमें प्रवृत्त होता है ॥ ४२ ॥ योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोगके द्वारा शान्ति प्राप्त करनेके लिये मेरे निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लेते हैं ॥ ४३ ॥ संसारमें मनुष्यके लिये सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोगके द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...