॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्ति का वर्णन
प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् ।
अहङ्कारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ॥ १६ ॥
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ॥ १७ ॥
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवान् आत्ममायया ॥ १८ ॥
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परः पुमान् ।
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥ १९ ॥
विश्वमात्मगतं व्यञ्जन् कूटस्थो जगदङ्कुरः ।
स्वतेजसा पिबत् तीव्रं आत्मप्रस्वापनं तमः ॥ २० ॥
(श्रीभगवान् कहते हैं) कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुषका प्रभाव अर्थात् ईश्वरकी संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे मायाके कार्यरूप देहादिमें आत्मत्वका अभिमान करके अहंकारसे मोहित और अपनेको कर्ता माननेवाले जीवको निरन्तर भय लगा रहता है ॥ १६ ॥ मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणासे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृतिमें गति उत्पन्न होती है, वास्तवमें वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं ॥ १८ ॥ जब परमपुरुष परमात्मा ने जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥ लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत् के अङ्कुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया ॥ २० ॥
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🌹💖🥀ॐ श्रीपरमात्मने नमः
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नारायण नारायण नारायण नारायण