|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
प्रह्लाद पर संत-कृपा..(01)
प्रह्लादजी महाराजपर नारदजीकी कृपा हो गयी । इन्द्रको हिरण्यकशिपु से भय लगता था । हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया हुआ था । पीछेसे इन्द्र उसकी स्त्री कयाधू को पकड़कर ले गया । बीचमें नारदजी मिल गये । उन्होंने कहा‒‘बेचारी अबला का कोई कसूर नहीं है, इसको क्यों दुःख देता है भाई !’ इन्द्रने कहा‒‘इसको दुःख नहीं देना है ! इसके गर्भ में बालक है । अकेले हिरण्यकशिपु ने हमारे को इतना तंग कर दिया है, अगर यह बालक पैदा हो जायगा तो बाप और बेटा दो होने पर हमारी क्या दशा करेंगे । इसलिये बालक जन्मेगा, तब उसे मार दूँगा, फिर काम ठीक हो जायगा ।’
नारदजीने कहा‒‘इसका बेटा तेरा वैरी नहीं होगा ।’ नारदजीकी बात सब मानते थे । इन्द्रने मान ली । ठीक है महाराज ! कयाधू को छोड़ दिया । नारदजीने बड़े स्नेहसे उसको अपनी कुटियापर रखा और कहा कि ‘बेटी ! तू चिन्ता मत कर । तेरे पति आयेंगे, तब पहुँचा दूँगा ।’ वह जैसे अपने बाप के घर रहे, वैसे नारदजी के पास रहने लगी । नारद जी के मन में एक लोभ था कि मौका पड़ जाय तो इसके गर्भ में जो बालक है, इसको भक्ति सिखा दें । यह संतों की कृपा होती है । कयाधू को बढ़िया-बढ़िया भगवान् की बातें सुनाते, पर लक्ष्य रखते उस बालकका । वह प्रसन्नता से सुनती और गर्भ में बैठा बालक भी उन बातों को सुनता था । नारदजी की कृपा से गर्भमें ही उसे ज्ञान हो गया ।
नारदजीने कहा‒‘इसका बेटा तेरा वैरी नहीं होगा ।’ नारदजीकी बात सब मानते थे । इन्द्रने मान ली । ठीक है महाराज ! कयाधू को छोड़ दिया । नारदजीने बड़े स्नेहसे उसको अपनी कुटियापर रखा और कहा कि ‘बेटी ! तू चिन्ता मत कर । तेरे पति आयेंगे, तब पहुँचा दूँगा ।’ वह जैसे अपने बाप के घर रहे, वैसे नारदजी के पास रहने लगी । नारद जी के मन में एक लोभ था कि मौका पड़ जाय तो इसके गर्भ में जो बालक है, इसको भक्ति सिखा दें । यह संतों की कृपा होती है । कयाधू को बढ़िया-बढ़िया भगवान् की बातें सुनाते, पर लक्ष्य रखते उस बालकका । वह प्रसन्नता से सुनती और गर्भ में बैठा बालक भी उन बातों को सुनता था । नारदजी की कृपा से गर्भमें ही उसे ज्ञान हो गया ।
माता रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धार्यो हि अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥
सो धार्यो हि अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥
प्रह्लादजी को कितना कष्ट दिया ! कितना भय दिखाया ! परंतु उन्होंने नाम को छोड़ा नहीं । प्रह्लादजी को रस आ गया, ऐसे नामको कैसे छोड़ा जाय ?शुक्राचार्यजी के पुत्र प्रह्लादजी को पढ़ाते थे । राजाने उनको धमकाया कि तुम हमारे बेटे को बिगाड़ते हो । यह प्रह्लाद हमारे वैरी का नाम लेता है । यह कैसे सीख गया ? प्रह्लादसे पूछा‒‘तुम्हारे यह कुमति कहाँसे आयी ? दूसरों का कहा हुआ करते हो कि स्वयं अपने मनसे ही ! किसने सिखा दिया ?’ प्रह्लादजी कहते हैं‒‘जिसको आप कुमति कहते हो, यह दूसरा कोई सिखा नहीं सकता, न स्वयं आती है । संत-महापुरुष, भगवान्के प्यारे भक्तोंकी जबतक कृपा नहीं हो जाती,तबतक इसे कोई सिखा नहीं सकता ।’
राम ! राम !! राम !!!
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
जय श्रीहरि
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