बुधवार, 20 दिसंबर 2017

एक संत की वसीयत -2





||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.२)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है | इसे उत्तम से उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पीला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा | जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मलमूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है | वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है | इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता | चित्र लिया जा सकता है उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है | अत: चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था | इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’) की ही पूजा हुई | चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अत: हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा ही हुआ |
हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होजाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण | शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं | अत: महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना मल का आदर करना हुआ | क्या यह उचित है ? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र की पूजा आदि होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र की भी पूजा आदि की जाये क्या आपत्ति है ? तो यह कहना भी उचित नहीं है | कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवं अविनाशी होता है, जबकि महात्मा का कहे जाने वाला शरीर पाँचभौतिक होने के कारण जड़ एवं विनाशी होता है |
भगवान् सर्वव्यापी हैं, अत: वे चित्र में भी है, परन्तु महात्मा की सर्वव्यापकता (शरीर से अलग) भगवान् की सर्वव्यापकता के ही अंतर्गत होती है | एक भगवान् के अंतर्गत समस्त महात्मा हैं, अत: भगवान् की पूजा के अंतर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वत: हो जाती है | यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम भगवान् की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धांत से सर्वथा विपरीत है | महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान् की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए। जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है। वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)


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