||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.३)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण दुर्गुण, सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती नहीं है। वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उनका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उन उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए।
उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित संतों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें सभी बातें मैंने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है। मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है।
1. यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए। उस समय किसी भी प्रकार की औषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। उस समय अनवरत रूप से भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन और श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीविष्णुसहस्रनाम, श्रीरामचरितमानस आदि पूज्य ग्रंथों का श्रवण कराया जाना चाहिए।
2. इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। निष्प्राण शरीर को साधु परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में।
जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूं, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए।
इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अंतिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूं।
जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूं, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए।
इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अंतिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूं।
3. मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गांव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गांव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गांव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग में अथवा नगर या गांव से बाहर जहां गायें विश्राम आदि किया करती हैं, वहां इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए।
इस शरीर के शान्त होने पर किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यंत सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए।
इस शरीर के शान्त होने पर किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यंत सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए।
4. अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊं, जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
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