||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत-1
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
{ ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज गीताभवन स्वर्गाश्रम में ग्रीष्म-ऋतु में प्रतिवर्ष पधारकर लोगों को सत्संग का लाभ देते रहे | अपनी जीवन-लीला के अन्तिम लगभग सवा चार वर्ष तक वे लगातार गीताभवन में ही रहे और 100 वर्ष से अधिक की आयु में भी निरंतर सत्संग करवाते रहे | त्याग एवं वैराग्य की मूर्ति श्री स्वामी जी महाराज की वसीयत साधकों के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है }
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श्रीभगवान की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूलकर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है। शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है। इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है। शरीर के नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है। वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बढ़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो। वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता। इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवं नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है। परन्तु मनुष्य अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, जो सच्चे हृदय से जीवनभर भगवद्भक्ति में रहते हैं। अधिक क्या कहा जाए, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबद्ध करते हैं एवं उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं। विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं। इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बंधित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते और प्रकाशित कराते हैं। कहने को तो वे अपने-आपको उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही करते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं।
श्रद्धातत्व अविनाशी है। अत: साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि उनकी विनाशी देह या नाम में। नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं | परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं | अत: भगवान् के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की पूजा तथा उनके अविनाशी नाम की स्मृति को छोड़कर इन नाशवान शरीरों तथा नामों को महत्त्व देने से न केवल अपना आजीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान धोखा भी होता है |
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
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