श्रीहरिशरणम्
संत-उद्बोधन !
( श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )
( श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज )
क्षोभ और क्रोधके रहते हुए क्या किसीको कभी भी चैन मिल सकता है ? कदापि नहीं । अब विचार करना है कि क्रोध तथा क्षोभ का मूल कारण क्या हो सकता है ? अपनी रुचि-पूर्ति के लिये दूसरों से आशा करनेसे क्या सदैव रुचि-पूर्ति सम्भव है? जीवनका अनुभव तो यह है कि सदैव कभी किसीकी रुचि-पूर्ति नहीं होती। रुचिका जन्म पराधीनतासे उत्पन्न होनेवाली सुखलोलुपतासे होता है। प्राकृतिक विधानके अनुसार सुखलोलुपता भयंकर दुःखकी जननी है। रुचिकी आपूर्ति होनेसे सजग साधकको रुचि-निवृत्तिकी प्रेरणा लेनी चाहिये। जब रुचि नाश हो जाती है, तब आनन्ददायक वास्तविक माँग सबल तथा स्थायी होती है, जिसके होते ही भूलसे उत्पन्न होनेवाली सभी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और फिर प्रभुके मङ्गलमय विधानसे अविनाशी-स्वाधीन-रसरूप जीवनकी माँग पूरी हो जाती है। इस दृष्टिसे रुचिकी पूर्ति न होना प्राकृतिक न्याय है। प्राकृतिक न्यायमें सभीका मङ्गल है, किसीका अमङ्गल नहीं है। पर यह रहस्य वे ही सजग साधक जान पाते हैं, जिन्होंने निजज्ञानके प्रकाशमें अपने जीवनका अध्ययन किया है और उसके फलस्वरूप जीवनका जो सत्य है, उसे अपनाया है।
सच्चा आदर, सम्मान, प्यार किसे मिलता है? जिसके पास कुछ नहीं है और जिसे कुछ नहीं चाहिये तथा जिसका जीवन शान्ति, स्वाधीनता तथा प्रेमसे भरपूर है। शान्ति, स्वाधीनता और प्रेम किसी परिस्थितिसे प्राप्त नहीं होते, अपितु प्राप्त परिस्थितिके सदुपयोगपूर्वक सभी परिस्थितियोंसे अतीत जो वास्तविक जीवन है, उसकी आवश्यकता अनुभव करनेसे शान्तिकी प्राप्ति होती है और शान्तिकी पूर्णतामें स्वाधीनताकी अभिव्यक्ति होती है। स्वाधीनतामें ही प्रेम अभिव्यक्त होता है। यह अनन्तका मङ्गलमय विधान है। हमस सबसे बड़ी भूल यह होती है कि हम वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिके द्वारा शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं, जो सर्वदा असम्भव है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वस्तु आदिका दोष है। इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु आदिका आश्रय नहीं रखना चाहिये। वस्तुओंका सदुपयोग व्यक्तियोंकी सेवामें साधनरूप हो सकता है। वस्तुओंका संग्रह और व्यक्तियोंकी ममता समस्त दुःखोंका मूल है। यद्यपि वस्तुओंका अभाव भी कष्टदायक है, परंतु वस्तुओंका प्रभाव ( दासत्व ) अभावसे भी कहीं अधिक दुःखद है। इतना ही नहीं, वस्तुओंके अभावसे तो केवल शारीरिक कष्ट होता है, किंतु वस्तुओंके प्रभावसे तो शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक अनेक भयंकर कष्ट अनन्त कालतक भोगने पड़ते हैं।
इस दृष्टिसे वस्तुओंका प्रभाव अभावसे भी अधिक दुःखद है। इसी वास्तविकता को बतानेके लिये प्रभुविश्वासी भक्त ईसा ने कहा था कि सुई के छेदमें से ऊँट भले ही निकल जाय, किंतु धनके गुलामका सत्यके साम्राज्यमें प्रवेश सम्भव नहीं है। शरणागत साधकोंका अनुभव है अकिञ्चन हुए बिना शान्ति, स्वाधीनता एवं प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती। इतना ही नहीं, अर्थ-सम्पन्न प्राणियोंको स्थायी आदर तथा प्यार भी नहीं मिलता। यदि कोई उनकी सेवा भी करता है तो पैसेवाला मान लेता है कि मेरे पैसेका प्रभाव है और यदि कोई सेवा नहीं करता है तो बेचारे पैसेवालेको क्रोध आता है। इतना ही नहीं, निम्न-कोटिके लोग तो उसके पैसेको छीन ही लेना चाहते हैं।
आज वर्तमान युगमें अर्थके अभाव तथा प्रभावमें आबद्ध व्यक्तियोंके बीच घोर संघर्ष प्रत्यक्ष हो रहा है। अर्थसे प्रदत्त जो सुविधाएँ थीं, वे आज घोर दुःखमें बदल रही हैं। इस कारण सजग मानवको अर्थके प्रभावसे मुक्त होकर प्राप्त अर्थका सदुपयोग शीघ्र-से-शीघ्र करनेका प्रयास करना चाहिये और अकिञ्चन होकर परम उदार, परम स्वतन्त्र, परम प्रेमसे भरपूर प्रभुसे आत्मीय सम्बन्ध स्वीकार कर सदा-सदाके लिये सर्वदुःखोंकी निवृत्ति, जीवन-मुक्ति एवं पराभक्ति का अधिकारी हो जाना चाहिये। नहीं तो अनमोल मानव-जीवन अपनी भूलसे बरबाद हो जायगा।
किसी दुःखीको देखकर करुणित होनेपर जो प्रेरणा मिली वह अनन्तके नाते निवेदन कर दी। रुचे तो अपनाइये और मानव-जीवन सफल बनाइये। इसी सद्भावनाके साथ बहुत-बहुत प्यार। सर्वसमर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपासे अर्थके अभाव और प्रभावसे पीड़ित प्राणियोंको साधननिष्ठ बनायें--यही मेरी सद्भावना है ।
ॐ आनन्द ।
………०७७. १०. सौर कार्तिक. सं० २०६०. कल्याण ( पृ० ९०१ )
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