।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान् विष्णु .....(पोस्ट.०३)
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उस परब्रह्म परमात्मा को ही द्विभुज कृष्ण और चतुर्भुज विष्णुरूप से बताया गया है‒
‘त्वमेव भगवानाद्यो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
अर्द्धाङ्गो द्विभुजः कृष्णोऽप्यर्द्धाङ्गेन चतुर्भुजः ॥‘
......................(प्रकृति॰ १२ । १५)
अर्द्धाङ्गो द्विभुजः कृष्णोऽप्यर्द्धाङ्गेन चतुर्भुजः ॥‘
......................(प्रकृति॰ १२ । १५)
‘आप सबके आदि, निर्गुण और प्रकृतिसे अतीत भगवान् ही अपने आधे अंगसे द्विभुज कृष्ण और आधे अंगसे चतुर्भुज विष्णुके रूपमें प्रकट हुए हैं ।’
“द्विभुजो राधिकाकान्तो लक्ष्मीकान्तश्चतुर्भुजः ।
गोलोके द्विभुजस्तस्थौ गोपैर्गोपीभिरावृतः ॥
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठं प्रययौ पद्मया सह ।
सर्वांशेन समौ तौ द्वौ कृष्णनारायणौ परौ ॥“
.......................(प्रकृति॰ ३५ । १४-१५)
गोलोके द्विभुजस्तस्थौ गोपैर्गोपीभिरावृतः ॥
चतुर्भुजश्च वैकुण्ठं प्रययौ पद्मया सह ।
सर्वांशेन समौ तौ द्वौ कृष्णनारायणौ परौ ॥“
.......................(प्रकृति॰ ३५ । १४-१५)
‘द्विभुज कृष्ण राधिकापति हैं और चतुर्भुज विष्णु लक्ष्मीपति हैं । कृष्ण गोप-गोपियों से आवृत हो कर गोलोक में और विष्णु वैकुण्ठ में स्थित हैं । वे कृष्ण और विष्णु‒दोनों सब प्रकारसे समान ही हैं ।’
जब भगवान् के अत्युग्र विराट्रूप (सहस्रभुजरूप) को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये, तब उनको आश्वासन देने के लिये भगवान् पहले चतुर्भुजरूप से और फिर द्विभुजरूप से अर्जुनके सामने प्रकट हुए‒
जब भगवान् के अत्युग्र विराट्रूप (सहस्रभुजरूप) को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये, तब उनको आश्वासन देने के लिये भगवान् पहले चतुर्भुजरूप से और फिर द्विभुजरूप से अर्जुनके सामने प्रकट हुए‒
“इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥“
...................(गीता ११ । ५०)
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥“
...................(गीता ११ । ५०)
‘वासुदेव भगवान् ने अर्जुन से ऐसा कहकर फिर उसी प्रकार से अपना देवरूप (चतुर्भुजरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्ण ने पुनः सौम्यरूप (द्विभुजरूप) होकर भयभीत अर्जुनको आश्वासन दिया [*] ।’ तात्पर्य है कि एक ही परब्रह्म परमात्मा द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं ।
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[*] द्विभुज होने के कारण सौम्यरूप को मनुष्यरूप भी कहा गया है‒”दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन” ...(गीता ११ । ५१) ।
[*] द्विभुज होने के कारण सौम्यरूप को मनुष्यरूप भी कहा गया है‒”दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन” ...(गीता ११ । ५१) ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
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