गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

पहला अध्याय

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||


कृष्णं नारायणं वंदे कृष्णं वंदे व्रजप्रियम् |
कृष्णं द्वैपायनं वंदे कृष्णं वंदे पृथासुतम् ||

श्रीमद्भागवत माहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे |
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयम नुमः||१||
यं प्रव्रजन्तमनुपेत्यमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तववोऽभिनेदुः
तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ २ ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत् की  उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिकतीनों प्रकारके तापों का नाश करनेवाले हैं ॥ १ ॥ जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानका अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही संन्यास लेनेके लिये घरसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा ! बेटा ! तुम कहाँ जा रहे हो ?’ उस समय वृक्षों ने तन्मय होनेके कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत-हृदयस्वरूप श्रीशुकदेवमुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०२)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

नैमिषे सूतं आसीनं अभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृत रसास्वाद कुशलः शौनकोऽब्रवीत् ॥ ३ ॥

शौनक उवाच –

अज्ञानध्वान्तविध्वंस कोटिसूर्यसमप्रभ ।
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम् ॥ ४ ॥
भक्तिज्ञानविरागाप्तो विवेको वर्धते महान् ।
मायामोहनिरासश्च वैष्णवैः क्रियते कथम् ॥ ५ ॥
इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः ।
क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधने किं परायणम् ॥ ६ ॥
श्रेयसां यद् भवेत् श्रेयः पावनानां च पावनम् ।
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् साधनं तद्‌वदाधुना ॥ ७ ॥
चिन्तामणिर्लोकसुखं सुरद्रुः स्वर्गसंपदम् ।
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम् ॥ ८ ॥

एक बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा ॥ ३ ॥----सूतजी ! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायनअमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये ॥ ४ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे अपना पीछा छुड़ाते हैं ? ॥ ५ ॥ इस घोर कलिकालमें जीव प्राय: आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥ ६ ॥ सूतजी ! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो तथा जो भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे ॥ ७ ॥ चिन्तामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान्‌का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते हैं ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट .०३)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

सूत उवाच

प्रीतिः शौनक चित्ते ते ह्यतो वच्मि विचार्य च ।
सर्वसिद्धान्त निष्पन्नं संसरभयनाशनम् ॥ ९ ॥
भक्त्योघवर्धनं यच्च कृष्णसंतोषहेतुकम् ।
तदहं तेऽभिधास्यामि सावधानतया श्रृणु ॥ १० ॥
कालव्यालमुखाग्रास त्रासनिर्णाशहेतवे ।
श्रीमद्‌भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ ११ ॥
एतस्माद् अपरं किंचिद् मनःशुद्ध्यै न विद्यते ।
जन्मान्तरे भवेत् पुण्यं तदा भागवतं लभेत् ॥ १२ ॥

सूतजीने कहा

शौनकजी ! तुम्हारे हृदयमें भगवान्‌का प्रेम है; इसलिये मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धान्तोंका निष्कर्ष सुनाता हूँ, जो जन्म-मृत्युके भयका नाश कर देता है ॥ ९ ॥ जो भक्तिके प्रवाहको बढ़ाता है और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ; उसे सावधान होकर सुनो ॥ १० ॥ श्रीशुकदेवजीने कलियुगमें जीवोंके काल- रूपी सर्पके मुखका ग्रास होनेके त्रासका आत्यन्तिक नाश करनेके लिये श्रीमद्भागवतशास्त्रका प्रवचन किया है ॥ ११ ॥ मनकी शुद्धिके लिये इससे बढक़र कोई साधन नहीं है। जब मनुष्यके जन्म-जन्मान्तरका पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्रकी प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०४)


देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

परीक्षिते कथां वक्तुं सभायां संस्थिते शुके ।
सुधाकुंभं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन् ॥ १३ ॥
शुकं नत्वावदन् सर्वे स्वकार्यकुशलाः सुराः ।
कथासुधां प्रयच्छस्व गृहीत्वैव सुधां इमाम् ॥ १४ ॥
एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रपीयताम् ।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्‌भागवतामृतम् ॥ १५ ॥
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् ।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवाञ्जहास ह ॥ १६ ॥
अभक्तान् तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम् ।
श्रीमद्‌भागवती वार्ता सुराणां अपि दुर्लभा ॥ १७ ॥

जब शुकदेवजी राजा परीक्षित्‌ को यह कथा सुनाने के लिये सभा में विराजमान हुए, तब देवतालोग उनके पास अमृतका कलश लेकर आये ॥ १३ ॥ देवता अपना काम बनानेमें बड़े कुशल होते हैं; अत: यहाँ भी सबने शुकदेवमुनिको नमस्कार करके कहा, ‘आप यह अमृत लेकर बदलेमें हमें कथामृत- का दान दीजिये ॥ १४ ॥ इस प्रकार परस्पर विनिमय (अदला-बदली) हो जानेपर राजा परीक्षित्‌ अमृतका पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृतका पान करगें॥ १५ ॥ इस संसारमें कहाँ काँच और कहाँ महामूल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा ? श्रीशुकदेवजीने (यह सोचकर) उस समय देवताओंकी हँसी उड़ा दी ॥ १६ ॥ उन्हें भक्तिशून्य (कथाका अनधिकारी) जानकर कथामृतका दान नहीं किया। इस प्रकार यह श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी दुर्लभ है ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०५)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

राज्ञो मोक्षं तथा वीक्ष्य पुरा धातापि विस्मितः ।
सत्यलोक तुलां बद्ध्वा तोलयत् साधनान्यजः ॥ १८ ॥
लघून्यन्यानि जातानि गौरवेण इदं महत् ।
तदा ऋषिगणाः सर्वे विस्मयं परमं ययुः ॥ १९ ॥
मेनिरे भगवद्‌रूपं शास्त्रं भागवतं कलौ ।
पठनात् श्रवणात् सद्यो वैकुण्ठफलदायकम् ॥ २० ॥
सप्ताहेन श्रुतं चैतत् सर्वथा मुक्तिदायकम् ।
सनकाद्यैः पुरा प्रोक्तं नारदाय दयापरैः ॥ २१ ॥
यद्यपि ब्रह्मसंबंधात् श्रुतमेतत् सुरर्षिणा ।
सप्ताहश्रवणविधिः कुमारैस्तस्य भाषितः ॥ २२ ॥

पूर्वकालमें श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्‌की मुक्ति देखकर ब्रह्माजीको भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला ॥ १८ ॥ अन्य सभी साधन तौलमें हलके पड़ गये, अपने महत्त्वके कारण भागवत ही सबसे भारी रहा। यह देखकर सभी ऋषियोंको बड़ा विस्मय हुआ ॥ १९ ॥ उन्होंने कलियुगमें इस भगवद्रूप भागवतशास्त्रको ही पढऩे-सुननेसे तत्काल मोक्ष देनेवाला निश्चय किया ॥ २० ॥ सप्ताह-विधिसे श्रवण करनेपर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है। पूर्वकालमें इसे दयापरायण सनकादिने देवर्षि नारदको सुनाया था ॥ २१ ॥ यद्यपि देवर्षिने पहले ब्रह्माजीके मुखसे इसे श्रवण कर लिया था, तथापि सप्ताहश्रवण- की विधि तो उन्हें सनकादि ने ही बतायी थी ॥ २२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०६)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

शौनक उवाच –
लोकविग्रहमुक्तस्य नारदस्यास्थिरस्य च ।
विधिश्रवे कुतः प्रीतिः संयोगः कुत्र तैः सह ॥ २३ ॥

सूत उवाच –

अत्र ते कीर्तयिष्यामि भक्तियुक्तं कथानकम् ।
शुकेन मम यत्प्रोक्तं रहः शिष्यं विचार्य च ॥ २४ ॥
एकदा हि विशालायां चत्वार ऋषयोऽमलाः ।
सत्सङ्‌गार्थं समायाता ददृशुस्तत्र नारदम् ॥ २५ ॥

कुमाराः ऊचुः –
कथं ब्रह्मन् दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् ।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ॥ २६ ॥
इदानीं शून्यचित्तोऽसि गतवित्तो यथा जनः ।
तवेदं मुक्तसङ्‌गस्य नोचितं वद कारणम् ॥ २७ ॥

नारद उवाच –
अहं तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तममिति ।
पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा ॥ २८ ॥
हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्‌गं सेतुबन्धनम् ।
एवमादिषु तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः ॥ २९ ॥
नापश्यं कुत्रचित् शर्म मनस्संतोषकारकम् ।
कलिनाधर्ममित्रेण धरेयं बाधिताधुना ॥ ३० ॥

शौनकजीने पूछासांसारिक प्रपञ्चसे मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादि के साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधानके श्रवणमें उनकी प्रीति कैसे हुई ? ॥ २३ ॥
सूतजीने कहाअब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था ॥ २४ ॥ एक दिन विशालापुरीमें वे चारों निर्मल ऋषि सत्सङ्गके लिये आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा ॥ २५ ॥
सनकादिने पूछाब्रह्मन् ! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है ? आप चिन्तातुर कैसे हैं ? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं ? और आपका आगमन कहाँसे हो रहा है ? ॥ २६ ॥ इस समय तो आप उस पुरुषके समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप-जैसे आसक्तिरहित पुरुषोंके लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताइये ॥ २७ ॥
नारदजीने कहामैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थोंमें मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्म के सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीडि़त कर रखा है ॥ २८३० ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०७)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

सत्यं नास्ति तपः शौचं दया दानं न विद्यते ।
उदरंभरिणो जीवा वराकाः कूटभाषिणः ॥ ३१ ॥
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या हि उपद्रुताः ।
पाखण्डनिरताः संतो विरक्ताः सपरिग्रहाः ॥ ३२ ॥
तरुणीप्रभुता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः ।
कन्याविक्रयिणो लोभाद् दंपतीनां च कल्कनम् ॥ ३३ ॥
आश्रमा यवनै रुद्धाः तीर्थानि सरितस्तथा ।
देवतायतनान्यत्र दुष्टैः नष्टानि भूरिशः ॥ ३४ ॥
न योगी नैव सिद्धो वा न ज्ञानी सत्क्रियो नरः ।
कलिदावानलेनाद्य साधनं भस्मतां गतम् ॥ ३५ ॥
अट्टशूला जनपदाः शिवशूला द्विजातयः ।
कामिन्यः केशशूलिन्यः संभवन्ति कलौ इह ॥ ३६ ॥

(नारद जी कहते हैं कि) अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं, वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखनेमें तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभीका परिग्रह करते हैं। घरोंमें स्त्रियोंका राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्या विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषोंमें कलह मचा रहता है ॥ ३१३३ ॥ महात्माओंके आश्रम, तीर्थ और नदियोंपर यवनों (विधॢमयोंका) अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं ॥ ३४ ॥ इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करने- वाला ही है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं ॥ ३५ ॥ इस कलियुगमें सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिसे निर्वाह करने लगी हैं ॥ ३६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०८)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

एवं पश्यन् कलेर्दोषान् पर्यटन् अवनीं अहम् ।
यामुनं तटमापन्नो यत्र लीला हरेरभूत् ॥ ३७ ॥
तत्राश्चर्यं मया दृष्टं श्रूयतां तन्मुनीश्वराः ।
एका तु तरुणी तत्र निषण्णा खिन्नमानसा ॥ ३८ ॥
वृद्धौ द्वौ पतितौ पार्श्वे निःश्वसन्तौ अचेतनौ ।
शुश्रूषन्ती प्रबोधन्ती रुदती च तयोः पुरः ॥ ३९ ॥
दशदिक्षु निरीक्षन्ती रक्षितारं निजं वपुः ।
वीज्यमाना शतस्त्रीभिः बोध्यमाना मुहुर्मुहुः ॥ ४० ॥
दृष्ट्वा दुराद् गतः सोऽहं कौतुकेन तदन्तिकम् ।
मां दृष्ट्वा चोत्थिता बाला विह्वला चाब्रवीद् वचः ॥ ४१ ॥

बालोवाच -
भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ।
दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम् ॥ ४२ ॥
बहुधा तव वाक्येन दुःखशान्तिर्भविष्यति ।
यदा भाग्यं भवेद् भूरि भवतो दर्शनं तदा ॥ ४३ ॥

नारद उवाच -
कासि त्वं कौ इमौ चेमा नार्यः काः पद्मलोचनाः ।
वद देवि सविस्तारं स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ४४ ॥

बालोवाच -
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ ।
ज्ञानवैराग्य नामानौ कालयोगेन जर्जरौ ॥ ४५ ॥
गङ्‌गाद्या स्मरितश्चेमा मत्सेवार्थं समागताः ।
तथापि न च मे श्रेयः सेवितायाः सुरैरपि ॥ ४६ ॥

इस तरह कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर पहुँचा, जहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं ॥ ३७ ॥ मुनिवरो ! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मनसे बैठी थी ॥ ३८ ॥ उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी ॥ ३९ ॥ वह अपने शरीरके रक्षक परमात्माको दसों दिशाओंमें देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं ॥ ४० ॥ दूरसे यह सब चरित देखकर मैं कुतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी ॥ ४१ ॥---अजी महात्माजी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसारके सभी पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है ॥ ४२ ॥ आपके वचनोंसे मेरे दु:खकी भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्यका जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं ॥ ४३ ॥
तब (उस युवती से) नारदजी ने पूछादेवि ! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं ? और तुम्हारे पास ये कमलनयनी देवियाँ कौन हैं ? तुम हमें विस्तारसे अपने दु:खका कारण बताओ ॥ ४४ ॥ युवतीने कहामेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं। समयके फेरसे ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं ॥ ४५ ॥ ये देवियाँ गङ्गाजी आदि नदियाँ हैं । ये सब मेरी सेवा करनेके लिये ही आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है ॥ ४६ ॥

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०९)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

इदानीं श्रुणु मद्वार्तां सचित्तस्त्वं तपोधन ।
वार्ता मे वितताप्यस्ति तां श्रुत्वा सुखमावह ॥ ४७ ॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्नाटके गता ।
क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ॥ ४८ ॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका ।
दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम् ॥ ४९ ॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी ।
जाताहं उवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु सांप्रतम् ॥ ५० ॥
इमौ तु शयितौ अत्र सुतौ मे क्लिश्यतः श्रमात् ।
इदं स्थानं परित्यज्य विदेशं गम्यते मया ॥ ५१ ॥
जरठत्वं समायातौ तेन दुःखेन दुःखिता ।
साहं तु तरुणी कस्मात् सुतौ वृद्धौ इमौ कुतः ॥ ५२ ॥
प्रयाणां सहचारित्वात् वैपरीत्यं कुतः स्थितम् ।
घटते जरठा माता तरुणौ तनयौ इति ॥ ५३ ॥
अतः शोचामि चात्मानं विस्मयाविष्टमानसा ।
वद योगनिधे धीमन् कारणं चात्र किं भवेत् ॥ ५४ ॥

(भक्ति नारद जी से कह रही है) तपोधन ! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये। मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें ॥ ४७ ॥ मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरातमें मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा ॥ ४८ ॥ वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव से पाखण्डियों ने मुझे अङ्ग- भङ्ग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने पुत्रोंके साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी ॥ ४९ ॥ अब जबसे मैं वृन्दावन आयी, तबसे पुन: परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ ॥ ५० ॥ किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदे दुखी हो रहे हैं। अब मैं यह स्थान छोडक़र अन्यत्र जाना चाहती हूँ ॥ ५१ ॥ ये दोनों बूढ़े हो गये हैंइसी दु:खसे मैं दुखी हूँ। मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों ? ॥ ५२ ॥ हम तीनों साथ-साथ रहनेवाले हैं। फिर यह विपरीतता क्यों ? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण ॥ ५३ ॥ इसीसे मैं आश्चर्य- चकित चित्तसे अपनी इस अवस्थापर शोक करती रहती हूँ। आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये ? ॥ ५४ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.१०)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

नारद उवाच -
ज्ञानेनात्मनि पश्यामि सर्वं एतत् तवानघे ।
न विषादः त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति ॥ ५५ ॥

सूत उवाच -
क्षणमात्रेण तज्ज्ञात्वा वाक्यं ऊचे मुनीश्वरः ॥ ५६ ॥

नारद उवाच -
श्रुणुषु अवहिता बाले योगोऽयं दारुणा कलिः ।
तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गः तपांसि च ॥ ५७ ॥
जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः ।
इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति हि असाधवः ।
धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा ॥ ५८ ॥
अस्पृश्यान् अवलोक्येयं शेषभारकरी धरा ।
वर्षे वर्षे क्रमात् जाता मंगलं नापि दृश्यते ॥ ५९ ॥
न त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति सांप्रतम् ।
उपेक्षितानुरागान्धैः जर्जरत्वेन संस्थिता ॥ ६० ॥
वृन्दावनस्य संयोगात् पुनस्त्वं तरुणी नवा ।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिः नृत्यति यत्र च ॥ ६१ ॥
अत्रेमौ ग्राहकाभावात् न जरामपि मुञ्चतः ।
किञ्चित् आत्मसुखेनेह प्रसुप्तिः मन्यतेऽनयोः ॥ ६२ ॥

नारदजीने (भक्ति से)कहासाध्वि ! मैं अपने हृदयमें ज्ञानदृष्टिसे तुम्हारे सम्पूर्ण दु:खका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे ॥ ५५ ॥
सूतजी कहते हैंमुनिवर नारदजीने एक क्षणमें ही उसका कारण जानकर कहा ॥ ५६ ॥
नारदजीने कहादेवि ! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं ॥ ५७ ॥ लोग शठता और दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दु:खसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी क्रमश: प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छूनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मङ्गल ही दिखायी देता है ॥ ५९ ॥ अब किसीको पुत्रोंके साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता। विषयानुरागके कारण अंधे बने हुए जीवोंसे उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी ॥ ६० ॥ वृन्दावनके संयोगसे तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अत: यह वृन्दावनधाम धन्य है, जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है ॥ ६१ ॥ परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रोंका यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है। यहाँ इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्शजनित आनन्द) की प्राप्ति होनेके कारण ये सोते-से जान पड़ते हैं ॥ ६२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.११)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

भक्तिरुवाच –

कथं परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचिः कलिः ।
प्रवृत्ते तु कलौ सर्वसारः कुत्र गतो महान् ॥ ६३ ॥
करुणापरेण हरिणापि अधर्म कथमीक्ष्यते ।
इमं मे संशयं छिन्धि त्वद्वाचा सुखितास्म्यहम् ॥ ६४ ॥

नारद उवाच –

यदि पृष्टस्त्वया बाले प्रेमतः श्रवणं कुरु ।
सर्वं वक्ष्यामि ते भद्रे कश्मलं ते गमिष्यति ॥ ६५ ॥
यदा मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः ।
तद्‌दिनात् कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः ॥ ६६ ॥

भक्तिने कहाराजा परीक्षित्‌ने इस पापी कलियुगको क्यों रहने दिया ? इसके आते ही सब वस्तुओंका सार न जाने कहाँ चला गया ? ॥ ६३ ॥ करुणामय श्रीहरिसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है ? मुने ! मेरा यह संदेह दूर कीजिये, आपके वचनोंसे मुझे बड़ी शान्ति मिली है ॥ ६४ ॥
नारदजीने कहाबाले ! यदि तुमने पूछा है, तो प्रेमसे सुनो, कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बताऊँगा और तुम्हारा दु:ख दूर हो जायगा ॥ ६५ ॥ जिस दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोडक़र अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ सम्पूर्ण साधनोंमें बाधा डालनेवाला कलियुग आ गया ॥ ६६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.१२)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

दृष्टो दिग्विजये राज्ञा दीनवत् शरणं गतः ।
न मया मारणीयोऽयं सारंग इव सरभुक् ॥ ६७ ॥
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
तत्फलं लभते सम्यक् कलौ केशवकीर्तनात् ॥ ६८ ॥
एकाकारं कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम् ।
विष्णुरातः स्थापितवान् कलिजानां सुखाय च ॥ ६९ ॥
कुकर्माचरनात्सारः सर्वतो निर्गतोऽधुना ।
पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा ॥ ७० ॥
विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने ।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः ॥ ७१ ॥
अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः ॥ ७२ ॥
कामक्रोध महालोभ तृष्णाव्याकुलचेतसः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः ॥ ७३ ॥
मनसश्चाजयात् लोभाद् दंभात् पाखण्डसंश्रयात् ।
शास्त्रान् अभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम् ॥ ७४ ॥
पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव ।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ॥ ७५ ॥
न हि वैष्णवता कुत्र संप्रदायपुरःसरा ।
एवं प्रलयतां प्राप्तो वस्तुसारः स्थले स्थले ॥ ७६ ॥
अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् ।
अतस्तु पुण्डरीकाक्षः सहते निकटे स्थितः ॥ ७७ ॥

दिग्विजयके समय राजा परीक्षित्‌की दृष्टि पडऩेपर कलियुग दीनके समान उनकी शरणमें आया। भ्रमरके समान सारग्राही राजाने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये ॥ ६७ ॥ क्योंकि जो फल तपस्या, योग एवं समाधिसे भी नहीं मिलता, कलियुगमें वही फल श्रीहरिकीर्तनसे ही भली-भाँति मिल जाता है ॥ ६८ ॥ इस प्रकार सारहीन होनेपर भी उसे इस एक ही दृष्टिसे सार- युक्त देखकर उन्होंने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये ही इसे रहने दिया था ॥ ६९ ॥इस समय लोगोंके कुकर्ममें प्रवृत्त होनेके कारण सभी वस्तुओंका सार निकल गया है और पृथ्वीके सारे पदार्थ बीजहीन भूसीके समान हो गये हैं ॥ ७० ॥ ब्राह्मण केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जनको भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथा का सार चला गया ॥ ७१ ॥ तीर्थोंमें नाना प्रकारके अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी प्रभाव जाता रहा ॥ ७२ ॥ जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णासे तपता रहता है, वे भी तपस्याका ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तपका भी सार निकल गया ॥ ७३ ॥ मनपर काबू न होनेके कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेनेके कारण एवं शास्त्रका अभ्यास न करनेसे ध्यानयोगका फल मिट गया ॥ ७४ ॥ पण्डितोंकी यह दशा है कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करनेकी ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधनमें वे सर्वथा अकुशल हैं ॥ ७५ ॥ सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखनेमें नहीं आती। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है ॥ ७६ ॥ यह तो इस युगका स्वभाव ही है इसमें किसीका दोष नहीं है। इसीसे पुण्डरीकाक्ष भगवान्‌ बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं ॥ ७७ ॥

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.१३)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

सूत उवाच –

इति तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयं परमं गता ।
भक्तिरूचे वचो भूयः श्रूयतां तच्च शौनक ॥ ७८ ॥

भक्तिरुवाच –

सुरर्षे त्वं हि धन्योऽसि मद्‌भाग्येन समागतः ।
साधूनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ ७९ ॥
जयति जयति मायां यस्य कायाधवस्ते
वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य ।
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं
सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ॥ ८० ॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ; फिर उसने जो कुछ कहा, उसे सुनिये ॥ ७८ ॥
भक्तिने कहादेवर्षे ! आप धन्य हैं ! मेरा बड़ा सौभाग्य था, जो आपका समागम हुआ। संसारमें साधुओंका दर्शन ही समस्त सिद्धियोंका परम कारण है ॥ ७९ ॥ आपका केवल एक बारका उपदेश धारण करके कयाधूकुमार प्रह्लादने मायापर विजय प्राप्त कर ली थी। ध्रुवने भी आपकी कृपासे ही ध्रुवपद प्राप्त किया था। आप सर्वमङ्गलमय और साक्षात् श्रीब्रह्माजीके पुत्र हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ८० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये
भक्तिनारदसमागमो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

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