|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
ज्ञानी भक्त..(02)
नाम-जपसे सब कुछ मिलता है । हृदयसे जो चाहना होगी, वह चीज उसको मिल जायगी । जैसे कल्पवृक्षके नीचे बैठकर मनुष्य जो कामना करता है,वह कामना पूरी होती है, ऐसे ही यदि हृदयमें नाम-जपकी सच्ची लगन होगी तो नाम महाराज उसी तत्त्वको जना देंगे । इसलिये वह जाग जायगा । जागनेसे क्या होगा ? जो अनुपम ब्रह्मसुख है, उसका वह अनुभव कर लेगा । ब्रह्मसुख कैसा होता है ? उसकी कोई उपमा नहीं है । भोजन करनेसे जैसे तृप्ति होती है, ऐसा वह सुख नहीं है । सम्पत्ति, वैभव मिलनेसे एक खुशी आती है, इसकी उस सुखसे तुलना नहीं कर सकते । ब्रह्मसुखमें कभी भी किंचिन्मात्र कमी नहीं आ सकती । दुःख नजदीक नहीं आ सकता । नाम जपनेवाले उस सुखका अनुभव कर लेते हैं ।
‘अकथ अनामय नाम न रूपा’‒अभी पहले कहा था कि नाम और रूप अकथनीय हैं । अब कहते हैं वह जो निर्गुण ब्रह्मसुख है, वह भी अकथनीय है । निर्गुण और सगुण दोनों अकथनीय हैं और इनके नामकी महिमा भी कथनमें नहीं आ सकती । तात्पर्य क्या निकला ? लौकिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि तो सांसारिक पदार्थोंका वर्णन और दर्शन कराते हैं, परंतु परमात्माकी तरफ चलनेमें ये सब कुण्ठित हो जाते हैं; क्योंकि परमात्मा इनका विषय नहीं है । परमात्मतत्त्व प्रकृतिसे भी अतीत है । प्रकृतिका वर्णन दार्शनिक लोगोंने किया है; परंतु प्रकृतिका वर्णन भी पूरा नहीं हो सकता । जो साधन हमें प्राप्त हैं, उनमें सबसे बढ़िया बुद्धि है, वह बुद्धि भी प्रकृतितक नहीं पहुँच पाती । प्रकृतिके कार्यों (शरीर, मन,इन्द्रियाँ) में बुद्धि काम करती है, पर कारणमें अर्थात् प्रकृतिमें काम नहीं करती । जैसे, मिट्टीसे बना हुआ घड़ा है, वह कितना ही बड़ा बना हो, सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने भीतर समा लेगा क्या ? क्या घड़ेमें पूरी पृथ्वी भरी जायगी ? नहीं भरी जा सकती । ऐसे प्रकृतिके कार्य‒मन, बुद्धि आदि प्रकृतिको ही अपने कब्जेमें नहीं ला सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मातक कैसे पहुँच सकते हैं ?
परमात्मा अनामय है अर्थात् विकार रहित है । उसमें विकार सम्भव नहीं है । उसका न नाम है, न रूप है । उसका स्वरूप देखा जाय तो काला, पीला या सफेद‒ऐसा नहीं है । उसको जाननेके लिये उसका नाम रखकर सम्बोधित करते हैं; क्योंकि हमलोग नाम-रूपमें बैठे हैं, इसलिये उसको ब्रह्म कहते हैं । संतोंने उसके विषयमें कहा है‒
“न को रस भोगी । न को रहत न्यारा ।
न को आप हरता । न को कर्तु व्यवहारा ॥
ज्यु देख्या त्यु मैं कह्या । काण न राखी काय ।
हरिया परचा नामका । तन मन भीतर थाय ॥“
वहाँ तुरीय पद भी नहीं है, वहाँ मोक्ष, मुक्ति भी नहीं है, बन्धन भी नहीं है । ऐसा अलौकिक तत्त्व है ! तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जीभसे नाम-जप करके उस ब्रह्मसुखका स्वयं अपने-आपमें जहाँ नाम पहुँचता ही नहीं, वहाँ अनुभव कर लेते हैं ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
ज्ञानी भक्त..(02)
नाम-जपसे सब कुछ मिलता है । हृदयसे जो चाहना होगी, वह चीज उसको मिल जायगी । जैसे कल्पवृक्षके नीचे बैठकर मनुष्य जो कामना करता है,वह कामना पूरी होती है, ऐसे ही यदि हृदयमें नाम-जपकी सच्ची लगन होगी तो नाम महाराज उसी तत्त्वको जना देंगे । इसलिये वह जाग जायगा । जागनेसे क्या होगा ? जो अनुपम ब्रह्मसुख है, उसका वह अनुभव कर लेगा । ब्रह्मसुख कैसा होता है ? उसकी कोई उपमा नहीं है । भोजन करनेसे जैसे तृप्ति होती है, ऐसा वह सुख नहीं है । सम्पत्ति, वैभव मिलनेसे एक खुशी आती है, इसकी उस सुखसे तुलना नहीं कर सकते । ब्रह्मसुखमें कभी भी किंचिन्मात्र कमी नहीं आ सकती । दुःख नजदीक नहीं आ सकता । नाम जपनेवाले उस सुखका अनुभव कर लेते हैं ।
‘अकथ अनामय नाम न रूपा’‒अभी पहले कहा था कि नाम और रूप अकथनीय हैं । अब कहते हैं वह जो निर्गुण ब्रह्मसुख है, वह भी अकथनीय है । निर्गुण और सगुण दोनों अकथनीय हैं और इनके नामकी महिमा भी कथनमें नहीं आ सकती । तात्पर्य क्या निकला ? लौकिक इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि तो सांसारिक पदार्थोंका वर्णन और दर्शन कराते हैं, परंतु परमात्माकी तरफ चलनेमें ये सब कुण्ठित हो जाते हैं; क्योंकि परमात्मा इनका विषय नहीं है । परमात्मतत्त्व प्रकृतिसे भी अतीत है । प्रकृतिका वर्णन दार्शनिक लोगोंने किया है; परंतु प्रकृतिका वर्णन भी पूरा नहीं हो सकता । जो साधन हमें प्राप्त हैं, उनमें सबसे बढ़िया बुद्धि है, वह बुद्धि भी प्रकृतितक नहीं पहुँच पाती । प्रकृतिके कार्यों (शरीर, मन,इन्द्रियाँ) में बुद्धि काम करती है, पर कारणमें अर्थात् प्रकृतिमें काम नहीं करती । जैसे, मिट्टीसे बना हुआ घड़ा है, वह कितना ही बड़ा बना हो, सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने भीतर समा लेगा क्या ? क्या घड़ेमें पूरी पृथ्वी भरी जायगी ? नहीं भरी जा सकती । ऐसे प्रकृतिके कार्य‒मन, बुद्धि आदि प्रकृतिको ही अपने कब्जेमें नहीं ला सकते, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मातक कैसे पहुँच सकते हैं ?
परमात्मा अनामय है अर्थात् विकार रहित है । उसमें विकार सम्भव नहीं है । उसका न नाम है, न रूप है । उसका स्वरूप देखा जाय तो काला, पीला या सफेद‒ऐसा नहीं है । उसको जाननेके लिये उसका नाम रखकर सम्बोधित करते हैं; क्योंकि हमलोग नाम-रूपमें बैठे हैं, इसलिये उसको ब्रह्म कहते हैं । संतोंने उसके विषयमें कहा है‒
“न को रस भोगी । न को रहत न्यारा ।
न को आप हरता । न को कर्तु व्यवहारा ॥
ज्यु देख्या त्यु मैं कह्या । काण न राखी काय ।
हरिया परचा नामका । तन मन भीतर थाय ॥“
वहाँ तुरीय पद भी नहीं है, वहाँ मोक्ष, मुक्ति भी नहीं है, बन्धन भी नहीं है । ऐसा अलौकिक तत्त्व है ! तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जीभसे नाम-जप करके उस ब्रह्मसुखका स्वयं अपने-आपमें जहाँ नाम पहुँचता ही नहीं, वहाँ अनुभव कर लेते हैं ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
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