शनिवार, 1 सितंबर 2018

भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि (पोस्ट.०१)



||श्री हरि ||
भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि 
(पोस्ट.०१)

संसार के दार्शनिकों में भगवान् शंकराचार्य का नाम सर्वाग्रणी है | अब तक उनके जीवन-चरित संबंधी छोटी बड़ी हजारों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें कई तो दिग्विजय संबंधी हैं |

भगवान् शंकर के दिग्विजय तथा गुरुवंशकाव्यम् एवं गुरुपरम्परा चरित्रम् आदि जो ग्रन्थ मिलते हैं तथा अन्यत्र उनके जीवनचरित-संबंधी जो सामग्रियां प्राप्त होती हैं , उनसे ज्ञात होता है कि वे सर्वथा अलौकिक,दिव्य-प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे | उनके अंदर प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, प्रचंड कर्मशीलता अगाध भगवद्भक्ति, उत्कृष्ट वैराग्य, अद्भुत योगैश्वर्य आदि अनेक गुणों का दुर्लभ सामंजस्य उपलब्ध होता है | उनकी वाणी पर तो मानो साक्षात् सरस्वती ही विराजती थीं | यही कारण है कि अपनी 32 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने अनेक बड़े बड़े ग्रन्थ रच डाले | सारे भारत में भ्रमण करके विरोधियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया, भारत के चारों कोनों में चार प्रधान मठ स्थापित किये और समस्त देश में सनातन वैदिक-धर्म की ध्वजा फहरा दी | थोड़े में यह कहा जा सकता है कि शंकाराचार्य ने अवतरित होकर डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की और उसीके फलस्वरूप आज हम सनातनधर्म को जीता-जागता देखते हैं | उनके इस धर्म-संस्थापन की कार्य को देखकर यह विश्वास और भी दृढ हो जाता है कि वे साक्षात् कैलासपति भगवान् शंकर के ही अवतार थे -–“शंकर: शंकर:” साक्षात्—और इसी से सब लोग “भगवान्” शब्द के साथ उनका स्मरण करते हैं |

आचार्य शंकर का प्राकट्य केरल-प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक गाँव में वैशाख शुक्ल 5,को हुआ था | उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का सुभद्रा था | शिवगुरु बड़े विद्वान् और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे | सुभद्रा भी पति के अनुरूप ही विदुषी और धर्मपरायणा पत्नी थीं | परन्तु प्राय: प्रौढावस्था समाप्त होने पर भी जब उन्हें कोई सन्तान न हुई तब पति-पत्नी ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान् शंकर की पुत्र-प्राप्ति के लिए कठिन ताप:पूर्ण उपासना की | भगवान् आशुतोष ब्राह्मणदम्पति की उपासना से प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उन्होंने उन्हें मनोवांछित वरदान दिया | भगवान् शंकर के आशीर्वाद से शुभ-मुहूर्त में माँ सुभद्रा के गर्भ से एक दिव्य कान्तिमान् पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ और उसका नाम आशुतोष शंकर के नाम पर ही शंकर रख दिया गया |

बालक शंकर के रूप में कोई महान् विभूति अवतरित हुई है, इसका प्रमाण शंकर के बचपन से ही मिलने लगा | एक वर्ष की अवस्था होते-होते बालक शंकर अपनी मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगे और दो वर्ष की अवस्था में माता से पुराणादि की कथाएं सुनकर कण्ठस्थ करने लगे | उनके पिता तीन वर्ष की अवस्था में उनका चूडाकर्म करके दिवंगत हो गए | पांचवें वर्ष में यज्ञोपवीत कर उन्हें गुरु के घर पढ़ने भेजा गया और केवल आठ वर्ष की अवस्था में वे वेद-वेदान्त और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके घर वापस आगये | उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन दंग रह गए |

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


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