॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
सूत
उवाच ।
सम्प्रस्थिते
द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।
ज्ञातुं
च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ १ ॥
व्यतीताः
कतिचिन्मासाः तदा नायात् ततोऽर्जुनः ।
ददर्श
घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः ॥ २ ॥
कालस्य
च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः ।
पापीयसीं
नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३ ॥
जिह्मप्रायं
व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।
पितृमातृसुहृद्भ्रातृ
दम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४ ॥
निमित्तान्यत्यरिष्टानि
काले तु अनुगते नृणाम् ।
लोभादि
अधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः ॥ ५ ॥
युधिष्ठिर
उवाच ।
सम्प्रेषितो
द्वारकायां जिष्णुर्बन्धु दिदृक्षया ।
ज्ञातुं
च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ ६ ॥
गताः
सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।
नायाति
कस्य वा हेतोः नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ७ ॥
अपि
देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः ।
यदाऽऽत्मनोऽङ्गमाक्रीडं
भगवान् उत्सिसृक्षति ॥ ८ ॥
यस्मान्नः
सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः ।
आसन्
सपत्नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात् ॥ ९ ॥
सूतजी
कहते हैं—स्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं—यह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ १ ॥ कई महीने बीत जानेपर भी
अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे ॥
२ ॥ उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय
जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ
भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण
हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥
सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें
भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे
सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥
४ ॥ कलिकाल के आजाने से लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि
अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे
हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥
५ ॥ युधिष्ठिरने कहा—भीमसेन ! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये
भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण क्या
कर रहे हैं—इसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये ॥
६ ॥ तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक
नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है
॥ ७ ॥ कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं ?
॥ ८ ॥ उन्हीं भगवान्की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य,स्त्री,प्राण,कुल,संतान,शत्रुओंपर विजय और
स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
पश्योत्पातान्
नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान्शंसतोऽदूराद्
भयं नो बुद्धिमोहनम् ॥ १० ॥
ऊर्वक्षिबाहवो
मह्यं स्फुरन्त्यङ्ग पुनः पुनः ।
वेपथुश्चापि
हृदये आरात् दास्यन्ति विप्रियम् ॥ ११ ॥
शिवैषोद्यन्तं
आदित्यं अभिरौति अनलानना ।
मामङ्ग
सारमेयोऽयं अभिरेभत्यभीरुवत् ॥ १२ ॥
शस्ताः
कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे ।
वाहांश्च
पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम ॥ १३ ॥
मृत्युदूतः
कपोतोऽयं उलूकः कम्पयन् मनः ।
प्रत्युलूकश्च
कुह्वानैः अनिद्रौ शून्यमिच्छतः ॥ १४ ॥
धूम्रा
दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः ।
निर्घातश्च
महांस्तात साकं च स्तनयित्नुभिः ॥ १५ ॥
वायुर्वाति
खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः ।
असृग्
वर्षन्ति जलदा बीभत्सं इव सर्वतः ॥ १६ ॥
(युधिष्ठिर
कहते हैं) भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सही—आकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं
! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई
उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फडक़ रही हैं। हृदय जोरसे धडक़ रहा है। अवश्य ही बहुत
जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥ देखो, यह सियारिन उदय
होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है। अरे ! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है
! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥ भीमसेन !
गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने
दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥ यह
मृत्युका दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको
अपने कर्ण-कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं ॥
१४ ॥ दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों
ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥
१५ ॥ शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल
बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
सूर्यं
हतप्रभं पश्य ग्रहमर्दं मिथो दिवि ।
ससङ्कुलैर्भूतगणैः
ज्वलिते इव रोदसी ॥ १७ ॥
नद्यो
नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च ।
न
ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति ॥ १८ ॥
न
पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्यन्ति च मातरः ।
रुदन्त्यश्रुमुखा
गावो न हृष्यन्ति ऋषभा व्रजे ॥ १९ ॥
दैवतानि
रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्चलन्ति च ।
इमे
जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः ।
भ्रष्टश्रियो
निरानन्दाः किमघं दर्शयन्ति नः ॥ २० ॥
मन्य
एतैर्महोत्पातैः नूनं भगवतः पदैः ।
अनन्यपुरुषश्रीभिः
हीना भूर्हतसौभगा ॥ २१ ॥
इति
चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा ।
राज्ञः
प्रत्यागमद् ब्रह्मन् यदुपुर्याः कपिध्वजः ॥ २२ ॥
तं
पादयोः निपतितं अयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनं
अब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः ॥ २३ ॥
विलोक्य
उद्विग्नहृदयो विच्छायं अनुजं नृपः ।
पृच्छति
स्म सुहृत् मध्ये संस्मरन् नारदेरितम् ॥ २४ ॥
(युधिष्ठिर
भीम से कहते हैं) देखो ! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाशमें ग्रह परस्पर
टकराया करते हैं। भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई है
॥ १७ ॥ नदी,
नद, तालाब, और लोगोंके
मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घीसे आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा ॥ १८ ॥
बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देतीं, गोशालामें गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ १९ ॥
देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता
है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई ! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम
श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दु:खकी सूचना दे रहे हैं
॥ २० ॥ इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह
भाग्यहीना भूमि भगवान्के उन चरणकमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा
जिनके ध्वजा, वज्र, अंकुशादि- विलक्षण
चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ॥ २१
॥ शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातोंको देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे
कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये ॥ २२ ॥ युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन
इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है।
उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारदकी
बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा ॥ २३-२४ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
युधिष्ठिर
उवाच ।
कच्चिदानर्तपुर्यां
नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्ह
सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥
शूरो
मातामहः कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः
सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६ ॥
सप्त
स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते
सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७ ॥
कच्चित्
राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।
हृदीकः
ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८ ॥
आसते
कुशलं कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते
सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९ ॥
प्रद्युम्नः
सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो
वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥
सुषेणश्चारुदेष्णश्च
साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये
च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥
तथैवानुचराः
शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या
ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥
अपि
स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्ण भुजाश्रयाः ।
अपि
स्मरन्ति कुशलं अस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३ ॥
भगवानपि
गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।
कच्चित्पुरे
सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः ॥ ३४ ॥
मङ्गलाय
च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते
यदुकुलाम्भोधौ आद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५ ॥
यद्बाहुदण्डगुप्तायां
स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।
क्रीडन्ति
परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥
यत्
पादशुश्रूषणमुख्य कर्मणा
सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।
निर्जित्य
सङ्ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो
हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७ ॥
यद्बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो
यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।
अधिक्रमन्त्यङ्घ्रिभिराहृतां
बलात्
सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८ ॥
युधिष्ठिरने
(अर्जुन से) कहा—‘भाई ! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज,
दशार्ह, आर्ह, सात्वत,
अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥
२५ ॥ हमारे माननीय नाना शूरसेन जी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे
भाईसहित मामा वसुदेव जी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६ ॥ उनकी
पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे
तो हैं ? ॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर,
जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित्
आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवोंके प्रभु बलरामजी तो
आनन्दसे हैं ? ॥ २८-२९ ॥ वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी
प्रद्युम्र सुखसे तो हैं ? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले
भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ ३० ॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके
सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ ३१ ॥ भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव
आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल
हैं न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा
कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ॥ ३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त
भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा-सभामें सुखपूर्वक विराजते
हैं न ? ॥ ३४ ॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल,
परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं।
उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा
सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान्के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ॥
३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही
रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य
तथा उन्हींकी अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर
श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी
हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते
हैं ॥ ३८ ॥
शेष
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0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
कच्चित्तेऽनामयं
तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञातः
किं वा तात चिरोषितः ॥ ३९ ॥
कच्चित्
नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्गलैः ।
न
दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४० ॥
कच्चित्त्वं
ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम् ।
शरणोपसृतं
सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः ॥ ४१ ॥
कच्चित्त्वं
नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम् ।
पराजितो
वाथ भवान् नोत्तमैर्नासमैः पथि ॥ ४२ ॥
अपि
स्वित्पर्यभुङ्क्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं
कर्म किञ्चित् कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ४३ ॥
कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ
हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योऽस्मि
रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ४४ ॥
(युधिष्ठिर
कहते हैं) भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक
रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई
? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥ कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त
तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए
याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम
नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥ तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो;
कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें
आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ?
कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये ?
॥ ४२ ॥ अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोडक़र तुमने अकेले ही
तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई
निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३
॥ हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान् श्रीकृष्णसे तुम रहित
हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो
सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो’ ॥ ४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
युधिष्टिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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