ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
ऊर्ध्व गति—
भगवान् कहते हैं-
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
.....................( गीता ८ । २४ से २६ )
‘दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में
ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता,
शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी
देवता है। उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात् परमेश्वर की उपासना
से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से
ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।’ तथा जिस मार्ग में
धूमाभिमानी देवता, रात्रि अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता
है, उस मार्गसे मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त
देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। जगत् के यह शुक्ल
और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमें से एक (शुक्ल मार्ग) द्वारा
गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे(कृष्ण मार्ग) के
द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात् जन्म मृत्युको प्राप्त
होता है।
शुक्ल-अर्चि या देवयान मार्ग से गये हुए योगी नहीं लौटते और
कृष्ण-धूम या पितृयान मार्ग से गये हुए योगियों को लौटना पड़ता है।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५.
कल्याण (पृ०७९३)
जय श्री हरि
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