गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)




ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

ऊर्ध्व गति

श्रुति कहती है-

तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणोयोनिं व क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाऽथ य इह कपूयचरणा अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्र्वयोनिं वा सूकरयोनिं व चाण्डालयोनिं वा।’ 
………..( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ७ )

इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होता है। ऐसे ही जिनका आचरण बुरा होता है अर्थात्‌ जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्‍वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।

यह ऊर्ध्व गति के भेद और एक से वापस न आने और दूसरी से लौटकर आने का क्रम हुआ |

मध्य गति---

मध्यगति यह मनुष्यलोक को प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राणवायु सूक्ष्मशरीर सहित समष्टि लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि प्राणवायुको समष्टि प्राणवायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुंचा देता है, यह वायुदेवता ही इसके योनि परिवर्तन का प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान‌ ईश्वर की आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधान के अनुसार जीव को उसके कर्मानुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों के खाद्यपदार्थों द्वारा उनके पक्वाशय में पहुंचाकर उपर्युक्त प्रकार के वीर्यरूप में परिणत कर मनुष्यरूप में उत्पन्न कराता है। 

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)



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