ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
ऊर्ध्व गति—
वापस लौटनेका क्रम—
स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--
तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )
कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूम से अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थों में सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुष के शरीर में पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचन के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
ऊर्ध्व गति—
वापस लौटनेका क्रम—
स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--
तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )
कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूम से अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थों में सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुष के शरीर में पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचन के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)
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