❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)
( सम्पादक-कल्याण )
अब रही उपासनाकी पद्धति । सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है । अव्यक्त और व्यक्त की उपासनामें प्रधान भेद दो हैं--उपास्यके स्वरूपका और भावका । अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार । अव्यक्तोपासना का साधक अपनेको ब्रह्म से अभिन्न समझकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता है, तो व्यक्तोपासना का साधक भगवान् को ही सर्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ समझकर ‘वासुदेव सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान्के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत् मायिक मानता है, तो यह सब कुछ भगवान् की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बल पर अग्रसर होता है, तो यह भगवान् की कृपा के बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है, तो इसमें भक्तिकी । अवश्य ही परस्पर भक्ति और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं । अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, वास्तव में कुछ है ही नहीं । व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथ की कठपुतली बनाकर भगवान ही सब कुछ करा रहे हैं। कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं । मेरे द्वारा जो कुछ होता है, सब उनकी प्रेरणा से और उन्हीं की शक्ति से होता है। मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्का नित्य चिन्तन करना ही मानता है, भगवान् क्या कराते हैं या करायेंगे--इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्के इन वचनों के अनुसार उसके आचरण होते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
.........................( गी० ८ । ७ )
इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है। उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्य-देवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधन को परम मुख्य माननेपर भी वह कर्त्तव्यकर्मों से कभी मुख नहीं मोड़ता, वरं न्याय से प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकामभाव रहता है कि अपने प्यारे भगवान्की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बन जाय। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं। वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्ने छठें अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
......................( गी० ६ । ४७ )
समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है, वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए ‘श्रद्धावान्’ और ‘मद्गतैनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘श्रद्धया परयोपेता’ और ‘मय्यावेश्य मनः’ में व्यक्त हुए हैं । ‘युक्ततम’ शब्द तो दोनों में एक ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)
( सम्पादक-कल्याण )
अब रही उपासनाकी पद्धति । सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है । अव्यक्त और व्यक्त की उपासनामें प्रधान भेद दो हैं--उपास्यके स्वरूपका और भावका । अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार । अव्यक्तोपासना का साधक अपनेको ब्रह्म से अभिन्न समझकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता है, तो व्यक्तोपासना का साधक भगवान् को ही सर्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ समझकर ‘वासुदेव सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान्के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत् मायिक मानता है, तो यह सब कुछ भगवान् की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बल पर अग्रसर होता है, तो यह भगवान् की कृपा के बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है, तो इसमें भक्तिकी । अवश्य ही परस्पर भक्ति और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं । अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, वास्तव में कुछ है ही नहीं । व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथ की कठपुतली बनाकर भगवान ही सब कुछ करा रहे हैं। कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं । मेरे द्वारा जो कुछ होता है, सब उनकी प्रेरणा से और उन्हीं की शक्ति से होता है। मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्का नित्य चिन्तन करना ही मानता है, भगवान् क्या कराते हैं या करायेंगे--इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्के इन वचनों के अनुसार उसके आचरण होते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
.........................( गी० ८ । ७ )
इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है। उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्य-देवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधन को परम मुख्य माननेपर भी वह कर्त्तव्यकर्मों से कभी मुख नहीं मोड़ता, वरं न्याय से प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकामभाव रहता है कि अपने प्यारे भगवान्की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बन जाय। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं। वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्ने छठें अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
......................( गी० ६ । ४७ )
समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है, वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए ‘श्रद्धावान्’ और ‘मद्गतैनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘श्रद्धया परयोपेता’ और ‘मय्यावेश्य मनः’ में व्यक्त हुए हैं । ‘युक्ततम’ शब्द तो दोनों में एक ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें