जब
भगवान् के लीलाशरीरों से किये
हुए अद्भुत पराक्रम,
उनके अनुपम गुण और चरित्रों को
श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के
उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे
कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोडक़र जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता
है; जिस समय वह
ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन
करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की
वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है,
बार-बार लंबी साँस खींचता है और सङ्कोच छोडक़र ‘हरे ! जगत्पते !! नारायण’ !!! कहकर पुकारने लगता है—तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की
ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है।
उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान्
को प्राप्त कर लेता है ॥
......श्रीमद्भागवत ७/७/३४—३६
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