गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

दस नामापराध (पोस्ट..०७)


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

दस नामापराध (पोस्ट..०७)

‘धर्मान्तरैः साम्यम्’ (१०) भगवान्‌के नामकी अन्य धर्मोंके साथ तुलना करना अर्थात् गंगास्नान करो, चाहे नाम-जप करो । नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो । सब बराबर है । ऐसे किसीके बराबर नामकी बात कह दो तो नामका अपराध हो जायगा । नाम महाराज तो अकेला ही है । इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं । भगवान् शंकरका नाम लो चाहे भगवान् विष्णुका नाम लो । ये नाम दूसरोंके समान नाम नहीं हैं । नामकी महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है ।

इस प्रकार इन दस अपराधोंसे रहित होकर नाम लिया जाय तो वह बड़ी जल्दी उन्नति करनेवाला होता है । अगर नाम जपनेवालेसे इन अपराधोमेंसे कभी कोई अपराध बन भी जाय तो उसके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है उसको तो ज्यादा नाम-जप ही करना चाहिये; क्योंकि नामापराधको दूर करनेवाला दूसरा प्रायश्चित्त है ही नहीं ।

नाम महाराजकी तो बहुत विलक्षण, अलौकिक महिमा है, जिस महिमाको स्वयं भगवान् भी कह नहीं सकते । इस वास्ते जो केवल नामनिष्ठ है; जो रात-दिन नाम-जपके ही परायण है, जिनका सम्पूर्ण जीवन नाम-जपमें ही लगा है;नाम महाराजके प्रभावसे उनके लिये इन अपराधोंमेंसे कोई भी अपराध लागू नहीं होता । ऐसे बहुत-से सन्त हुए हैं, जो शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों आदिको नहीं जानते थे, परन्तु नाम महाराजके प्रभावसे उन्होंने वेदों, पुराणों आदिके सिद्धान्त अपनी साधारण ग्रामीण भाषामें लिख लिये हैं । इस वास्ते सच्चे हृदयसे नाममें लग जाओ भाई; क्योंकि यह कलियुग का मौका है । बड़ा सुन्दर अवसर मिल गया है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे



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