मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

मैत्रेय उवाच -
निशम्यात्मभुवा गीतं कारणं शङ्‌कयोज्झिताः ।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः ॥ १ ॥
दितिस्तु भर्तुरादेशाद् अपत्यपरिशङ्‌किनी ।
पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ ॥ २ ॥
उत्पाता बहवस्तत्र निपेतुर्जायमानयोः ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च लोकस्य उरु भयावहाः ॥ ३ ॥
सहाचला भुवश्चेलुः दिशः सर्वाः प्रजज्वलुः ।
स उल्काश्च अशनयः पेतुः, केतवश्चार्तिहेतवः ॥ ४ ॥
ववौ वायुः सुदुःस्पर्शः फूत्कारानीरयन्मुहुः ।
उन्मूलयन् नगपतीन् वात्यानीको रजोध्वजः ॥ ५ ॥
उद्धसत् तडिदम्भोद घटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्टतमसा न स्म व्यादृश्यते पदम् ॥ ६ ॥
चुक्रोश विमना वार्धिरुदूर्मिः क्षुभितोदरः ।
सोदपानाश्च सरितः चुक्षुभुः शुष्कपङ्‌कजाः ॥ ७ ॥
मुहुः परिधयोऽभूवन् सराह्वोः शशिसूर्ययोः ।
निर्घाता रथनिर्ह्रादा विवरेभ्यः प्रजज्ञिरे ॥ ८ ॥
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
सृगाल उलूक टङ्‌कारैः प्रणेदुः अशिवं शिवाः ॥ ९ ॥
सङ्‌गीतवद् रोदनवद् उन्नमय्य शिरोधराम् ।
व्यमुञ्चन् विविधा वाचो ग्रामसिंहाः ततस्ततः ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! ब्रह्माजी के कहने से अन्धकार का कारण जानकर देवताओं की शङ्का निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोकको लौट आये ॥ १ ॥ इधर दिति को अपने पतिदेवके कथनानुसार पुत्रों की ओर से उपद्रवादिकी आशङ्का बनी रहती थी। इसलिये जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वीने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें अनेकों उत्पात होने लगेजिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये ॥ ३ ॥ जहाँ-तहाँ पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे, सब दिशाओंमें दाह होने लगा। जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिरने लगीं और आकाशमें अनिष्टसूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी देने लगे ॥ ४ ॥ बार-बार सायँ-सायँ करती और बड़े-बड़े वृक्षोंको उखाड़ती हुई बड़ी विकट और असह्य वायु चलने लगी। उस समय आँधी उसकी सेना और उड़ती हुई धूल ध्वजाके समान जान पड़ती थी ॥ ५ ॥ बिजली जोर-जोरसे चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओंने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंके लुप्त हो जानेसे आकाशमें गहरा अँधेरा छा गया। उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था ॥ ६ ॥ समुद्र दुखी मनुष्यकी भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठने लगीं और उसके भीतर रहनेवाले जीवोंमें बड़ी हलचल मच गयी। नदियों तथा अन्य जलाशयोंमें भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये ॥ ७ ॥ सूर्य और चन्द्रमा बार-बार ग्रसे जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमङ्गलसूचक मण्डल बैठने लगे। बिना बादलोंके ही गरजनेका शब्द होने लगा तथा गुफाओंमेंसे रथकी घरघराहटका-सा शब्द निकलने लगा ॥ ८ ॥ गाँवोंमें गीदड़ और उल्लुओंके भयानक शब्दके साथ ही सियारियाँ मुखसे दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमङ्गल शब्द करने लगीं ॥ ९ ॥ जहाँ-तहाँ कुत्ते अपनी गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने और कभी रोनेके समान भाँति-भाँतिके शब्द करने लगे ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

खराश्च कर्कशैः क्षत्तः खुरैर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्कार रभसा मत्ताः पर्यधावन् वरूथशः ॥ ११ ॥
रुदन्तो रासभत्रस्ता नीडाद् उदपतन्खगाः ।
घोषेऽरण्ये च पशवः शकृन् मूत्रमकुर्वत ॥ १२ ॥
गावः अत्रसन् असृग्दोहाः तोयदाः पूयवर्षिणः ।
व्यरुदन् देवलिङ्‌गानि द्रुमाः पेतुर्विनानिलम् ॥ १३ ॥
ग्रहान् पुण्यतमानन्ये भगणांश्चापि दीपिताः ।
अतिचेरुः वक्रगत्या युयुधुश्च परस्परम् ॥ १४ ॥
दृष्ट्वा अन्यांश्च महोत्पातान् अतत्-तत्त्वविदः प्रजाः ।
ब्रह्मपुत्रान् ऋते भीता मेनिरे विश्वसंप्लवम् ॥ १५ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहरहे हैं) विदुरजी ! झुंड-के-झुंड गधे अपने कठोर खुरोंसे पृथ्वी खोदते और रेंकनेका शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौडऩे लगे ॥ ११ ॥ पक्षी गधोंके शब्दसे डरकर रोते-चिल्लाते अपने घोंसलोंसे उडऩे लगे। अपनी खिरकोंमें बँधे हुए और वनमें चरते हुए गाय-बैल आदि पशु डरके मारे मल-मूत्र त्यागने लगे ॥ १२ ॥ गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहनेपर उनके थनोंसे खून निकलने लगा, बादल पीबकी वर्षा करने लगे, देवमूर्तियोंकी आँखोंसे आँसू बहने लगे और आँधीके बिना ही वृक्ष उखड़-उखडक़र गिरने लगे ॥ १३ ॥ शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रों को लाँघकर वक्रगति से चलने लगे तथा आपस में युद्ध करने लगे ॥ १४ ॥ ऐसे ही और भी अनेकों भयङ्कर उत्पात देखकर सनकादि के सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातों का मर्म न जानने के कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसार का प्रलय होनेवाला है ॥ १५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

तौ आदिदैत्यौ सहसा व्यज्यमान आत्मपौरुषौ ।
ववृधातेऽश्मसारेण कायेन अद्रिपती इव ॥ १६ ॥
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभिः
     निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्‌गदाभुजौ ।
गां कंपयन्तौ चरणैः पदे पदे
     कट्या सुकाञ्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः ॥ १७ ॥
प्रजापतिर्नाम तयोरकार्षीद्
     यः प्राक् स्वदेहाद्यमयोरजायत ।
तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा
     यं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः ॥ १८ ॥

वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढक़र महान् पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया ॥ १६ ॥ वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वीपर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनीसे सुशोभित कमर अपने प्रकाशसे सूर्यको भी मात करती थी ॥ १७ ॥ वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजीने उनका नामकरण किया। उनमेंसे जो उनके वीर्यसे दितिके गर्भमें पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दितिके उदरसे पहले निकला, वह हिरण्याक्षके नामसे विख्यात हुआ ॥ १८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

चक्रे हिरण्यकशिपुः दोर्भ्यां ब्रह्मवरेण च ।
वशे सपालान् लोकान् त्रीन् अकुतोमृत्युरुद्धतः ॥ १९ ॥
हिरण्याक्षो अनुजस्तस्य प्रियः प्रीतिकृदन्वहम् ।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुः मृगयन् रणम् ॥ २० ॥
तं वीक्ष्य दुःसहजवं रणत् काञ्चन नूपुरम् ।
वैजयन्त्या स्रजा जुष्टं अंस न्यस्त महागदम् ॥ २१ ॥
मनोवीर्यवर उत्सिक्तं असृण्यं अकुतोभयम् ।
भीता निलिल्यिरे देवाः तार्क्ष्य त्रस्तः इवाहयः ॥ २२ ॥
स वै तिरोहितान् दृष्ट्वा महसा स्वेन दैत्यराट् ।
स-इन्द्रान् देवगणान् क्षीबान् अपश्यन् व्यनदद्‍भृशम् ॥ २३ ॥
ततो निवृत्तः क्रीडिष्यन् गम्भीरं भीमनिस्वनम् ।
विजगाहे महासत्त्वो वार्धिं मत्त इव द्विपः ॥ २४ ॥
तस्मिन्प्रविष्टे वरुणस्य सैनिका
     यादोगणाः सन्नधियः ससाध्वसाः ।
अहन्यमाना अपि तस्य वर्चसा
     प्रधर्षिता दूरतरं प्रदुद्रुवुः ॥ २५ ॥

हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीके वरसे मृत्युभयसे मुक्त हो जानेके कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओंके बलसे लोकपालोंके सहित तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया ॥ १९ ॥ वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्षको बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाईका प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथमें गदा लिये युद्धका अवसर ढूँढ़ता हुआ स्वर्गलोकमें जा पहुँचा ॥ २० ॥ उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरोंमें सोनेके नूपुरोंकी झनकार हो रही थी, गलेमें विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधेपर विशाल गदा रखी हुई थी ॥ २१ ॥ उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजीके वरने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरङ्कुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डरके मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुडक़े डरसे साँप छिप जाते हैं ॥ २२ ॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्षने देखा कि मेरे तेजके सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर गर्जना करने लगा ॥ २३ ॥ फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे लौटकर जलक्रीडा करनेके लिये मतवाले हाथीके समान गहरे समुद्रमें घुस गया, जिसमें लहरोंकी बड़ी भयङ्कर गर्जना हो रही थी ॥ २४ ॥ ज्यों ही उसने समुद्रमें पैर रखा कि डरके मारे वरुणके सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकारकी छेड़छाड़ न करनेपर भी वे उसकी धाकसे ही घबराकर बहुत दूर भाग गये ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स वर्षपूगान् उदधौ महाबलः
     चरन् महोर्मीन् श्वसनेरितान्मुहुः ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरीं
     आसेदिवान् तास्तात पुरीं प्रचेतसः ॥ २६ ॥
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
     यादोगणानां ऋषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचवत्
     जगाद मे देह्यधिराज संयुगम् ॥ २७ ॥
त्वं लोकपालोऽधिपतिर्बृहच्छ्रवा
     वीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोकेऽखिलदैत्यदानवान्
     यद् राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥ २८ ॥

महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षोंतक समुद्रमें ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार- बार वायुवेगसे उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गोंपर ही अपनी लोहमयी गदाको आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुणकी राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ॥ २६ ॥ वहाँ पाताललोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुणजी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे कहा—‘महाराज ! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था॥ २८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स एवं उत्सिक्त मदेन विद्विषा
     दृढं प्रलब्धो भगवान् अपां पतिः ।
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया
     व्यवोचदङ्‌गोपशमं गता वयम् ॥ २९ ॥
पश्यामि नान्यं पुरुषात् पुरातनाद्
     यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यति असुरर्षभेहि तं
     मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ३० ॥
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः
     शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानां असतां प्रशान्तये
     रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१ ॥

उस मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे भगवान्‌ वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे—‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है ॥ २९ ॥ भगवान्‌ पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तोंसे घिरकर वीरशय्यापर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप धारण किया करते हैं॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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