सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

मैत्रेय उवाच –

अथादीक्षत राजा तु हयमेधशतेन सः ।
ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती ॥ १ ॥
तदभिप्रेत्य भगवान् कर्मातिशयमात्मनः ।
शतक्रतुर्न ममृषे पृथोर्यज्ञमहोत्सवम् ॥ २ ॥
यत्र यज्ञपतिः साक्षाद् भगवान् हरिरीश्वरः ।
अन्वभूयत सर्वात्मा सर्वलोकगुरुः प्रभुः ॥ ३ ॥
अन्वितो ब्रह्मशर्वाभ्यां लोकपालैः सहानुगैः ।
उपगीयमानो गन्धर्वैः मुनिभिश्चाप्सरोगणैः ॥ ४ ॥
सिद्धा विद्याधरा दैत्या दानवा गुह्यकादयः ।
सुनन्दनन्दप्रमुखाः पार्षदप्रवरा हरेः ॥ ५ ॥
कपिलो नारदो दत्तो योगेशाः सनकादयः ।
तमन्वीयुर्भागवता ये च तत्सेवनोत्सुकाः ॥ ६ ॥
यत्र धर्मदुघा भूमिः सर्वकामदुघा सती ।
दोग्धि स्माभीप्सितान् अर्थान् यजमानस्य भारत ॥ ७ ॥
ऊहुः सर्वरसान्नद्यः क्षीरदध्यन्नगोरसान् ।
तरवो भूरिवर्ष्माणः प्रासूयन्त मधुच्युतः ॥ ८ ॥
सिन्धवो रत्‍ननिकरान् गिरयोऽन्नं चतुर्विधम् ।
उपायनं उपाजह्रुः सर्वे लोकाः सपालकाः ॥ ९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! महाराज मनुके ब्रह्मावर्त क्षेत्रमें, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, राजा पृथुने सौ अश्वमेध-यज्ञोंकी दीक्षा ली ॥ १ ॥ यह देखकर भगवान्‌ इन्द्रको विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथुके कर्म मेरे कर्मोंकी अपेक्षा भी बढ़ जायँगे। इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सवको सहन न कर सके ॥ २ ॥ महाराज पृथुके यज्ञमें सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान्‌ हरिने यज्ञेश्वररूपसे साक्षात् दर्शन दिया था ॥ ३ ॥ उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरोंके सहित लोकपालगण भी पधारे थे। उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभुकी कीर्ति गा रहे थे ॥ ४ ॥ सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान्‌के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान्‌की सेवाके लिये उत्सुक रहते हैंवे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे ॥ ५-६ ॥ भारत ! उस यज्ञमें यज्ञसामग्रियोंको देनेवाली भूमिने कामधेनुरूप होकर यजमानकी सारी कामनाओंको पूर्ण किया था ॥ ७ ॥ नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकारके रसोंको बहा लाती थीं तथा जिनसे मधु चूता रहता थाऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरहकी सामग्रियाँ समर्पण करते थे ॥ ८ ॥ समुद्र बहुत-सी रत्नराशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्यचार प्रकारके अन्न तथा लोकपालोंके सहित सम्पूर्ण लोक तरह-तरहके उपहार उन्हें समर्पण करते थे ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

इति चाधोक्षजेशस्य पृथोस्तु परमोदयम् ।
असूयन् भगवान् इन्द्रः प्रतिघातमचीकरत् ॥ १० ॥
चरमेणाश्वमेधेन यजमाने यजुष्पतिम् ।
वैन्ये यज्ञपशुं स्पर्धन् अपोवाह तिरोहितः ॥ ११ ॥
तं अत्रिर्भगवानैक्षत् त्वरमाणं विहायसा ।
आमुक्तमिव पाखण्डं योऽधर्मे धर्मविभ्रमः ॥ १२ ॥
अत्रिणा चोदितो हन्तुं पृथुपुत्रो महारथः ।
अन्वधावत सङ्‌क्रुद्धः तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् ॥ १३ ॥
तं तादृशाकृतिं वीक्ष्य मेने धर्मं शरीरिणम् ।
जटिलं भस्मनाच्छन्नं तस्मै बाणं न मुञ्चति ॥ १४ ॥
वधान्निवृत्तं तं भूयो हन्तवेऽत्रिरचोदयत् ।
जहि यज्ञहनं तात महेन्द्रं विबुधाधमम् ॥ १५ ॥
एवं वैन्यसुतः प्रोक्तः त्वरमाणं विहायसा ।
अन्वद्रवद् अभिक्रुद्धो रावणं गृध्रराडिव ॥ १६ ॥

महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरि को ही अपना प्रभु मानते थे। उनकी कृपा से उस यज्ञानुष्ठान में उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ। किन्तु यह बात देवराज इन्द्रको सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की ॥ १० ॥ जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञद्वारा भगवान्‌ यज्ञपति की आराधना कर रहे थे, इन्द्रने ईर्ष्यावश गुप्तरूपसे उनके यज्ञका घोड़ा हर लिया ॥ ११ ॥ इन्द्रने अपनी रक्षाके लिये कवचरूपसे पाखण्डवेष धारण कर लिया था, जो अधर्ममें धर्मका भ्रम उत्पन्न करनेवाला हैजिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है ॥ १२ ॥ इस वेषमें वे घोड़ेको लिये बड़ी शीघ्रतासे आकाशमार्गसे जा रहे थे कि उनपर भगवान्‌ अत्रिकी दृष्टि पड़ गयी। उनके कहनेसे महाराज पृथुका महारथी पुत्र इन्द्रको मारनेके लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोधसे बोला, ‘अरे खड़ा रह ! खड़ा रह’ ॥ १२-१३ ॥ इन्द्र सिरपर जटाजूट और शरीरमें भस्म धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमारने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उनपर बाण नहीं छोड़ा ॥ १४ ॥ जब वह इन्द्रपर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रिने पुन: उसे इन्द्रको मारनेके लिये आज्ञा दी—‘वत्स ! इस देवताधम इन्द्रने तुम्हारे यज्ञमें विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो॥ १५ ॥
अत्रि मुनिके इस प्रकार उत्साहित करनेपर पृथुकुमार क्रोधमें भर गया। इन्द्र बड़ी तेजीसे आकाशमें जा रहे थे। उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावणके पीछे जटायु ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

सोऽश्वं रूपं च तद्धित्वा तस्मा अन्तर्हितः स्वराट् ।
वीरः स्वपशुमादाय पितुर्यज्ञं उपेयिवान् ॥ १७ ॥
तत्तस्य चाद्‍भुतं कर्म विचक्ष्य परमर्षयः ।
नामधेयं ददुस्तस्मै विजिताश्व इति प्रभो ॥ १८ ॥
उपसृज्य तमस्तीव्रं जहाराश्वं पुनर्हरिः ।
चषालयूपतश्छन्नो हिरण्यरशनं विभुः ॥ १९ ॥
अत्रिः सन्दर्शयामास त्वरमाणं विहायसा ।
कपालखट्वाङ्‌गधरं वीरो नैनमबाधत ॥ २० ॥
अत्रिणा चोदितस्तस्मै सन्दधे विशिखं रुषा ।
सोऽश्वं रूपं च तद्धित्वा तस्थावन्तर्हितः स्वराट् ॥ २१ ॥
वीरश्चाश्वमुपादाय पितृयज्ञमथाव्रजत् ।
तदवद्यं हरे रूपं जगृहुर्ज्ञानदुर्बलाः ॥ २२ ॥
यानि रूपाणि जगृहे इन्द्रो हयजिहीर्षया ।
तानि पापस्य खण्डानि लिङ्‌गं खण्डमिहोच्यते ॥ २३ ॥
एवमिन्द्रे हरत्यश्वं वैन्ययज्ञजिघांसया ।
तद्‍गृहीतविसृष्टेषु पाखण्डेषु मतिर्नृणाम् ॥ २४ ॥
धर्म इत्युपधर्मेषु नग्नरक्तपटादिषु ।
प्रायेण सज्जते भ्रान्त्या पेशलेषु च वाग्मिषु ॥ २५ ॥

स्वर्गपति इन्द्र उसे(पृथुकुमार को) पीछे आते देख, उस वेष और घोड़ेको छोडक़र वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिताकी यज्ञशालामें लौट आया ॥ १७ ॥ शक्तिशाली विदुरजी ! उसके इस अद्भुत पराक्रमको देखकर महर्षियोंने उसका नाम विजिताश्व रखा ॥ १८ ॥
यज्ञपशु को चषाल और यूपमें [*] बाँध दिया गया था। शक्तिशाली इन्द्रने घोर अन्धकार फैला दिया और उसीमें छिपकर वे फिर उस घोड़ेको उसकी सोने की जंजीर समेत ले गये ॥ १९ ॥ अत्रि मुनि ने फिर उन्हें आकाशमें तेजी से जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वाङ्ग देखकर पृथुपुत्र ने उनके मार्गमें कोई बाधा न डाली ॥ २० ॥ तब अत्रिने राजकुमार को फिर उकसाया और उसने गुस्सेमें भरकर इन्द्रको लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया। यह देखते ही देवराज उस वेष और घोड़ेको छोडक़र वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २१ ॥ वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिताकी यज्ञ- शालामें लौट आया। तबसे इन्द्रके उस निन्दित वेषको मन्दबुद्धि पुरुषोंने ग्रहणकर लिया ॥ २२ ॥ इन्द्रने अश्वहरणकी इच्छासे जो-जो रूप धारण किये थे, वे पापके खण्ड होनेके कारण पाखण्ड कहलाये। यहाँ खण्डशब्द चिह्नका वाचक है ॥ २३ ॥ इस प्रकार पृथुके यज्ञका विध्वंस करनेके लिये यज्ञपशुको चुराते समय इन्द्रने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था, उन नग्र’, ‘रक्ताम्बरतथा कापालिकआदि पाखण्डपूर्ण आचारोंमें मनुष्योंकी बुद्धि प्राय: मोहित हो जाती है; क्योंकि ये नास्तिकमत देखनेमें सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियोंसे अपने पक्षका समर्थन करते हैं। वास्तवमें ये उपधर्ममात्र हैं। लोग भ्रमवश धर्म मानकर इनमें आसक्त हो जाते हैं ॥ २४-२५ ॥

…………………………………………..
[*] यज्ञमण्डप में यज्ञपशु को बाँधनेके लिये जो खंभा होता है, उसे यूपकहते हैं और यूप के आगे रखे हुए बलयाकार काष्ठ को चषालकहते हैं।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

तदभिज्ञाय भगवान् पृथुः पृथुपराक्रमः ।
इन्द्राय कुपितो बाणं आदत्तोद्यतकार्मुकः ॥ २६ ॥
तमृत्विजः शक्रवधाभिसन्धितं
     विचक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमसह्यरंहसम् ।
निवारयामासुरहो महामते
     न युज्यतेऽत्रान्यवधः प्रचोदितात् ॥ २७ ॥
वयं मरुत्वन्तमिहार्थनाशनं
     ह्वयामहे त्वच्छ्रवसा हतत्विषम् ।
अयातयामोपहवैरनन्तरं
     प्रसह्य राजन् जुहवाम तेऽहितम् ॥ २८ ॥
इत्यामन्त्र्य क्रतुपतिं विदुरास्यर्त्विजो रुषा ।
स्रुग्घस्तान् जुह्वतोऽभ्येत्य स्वयम्भूः प्रत्यषेधत ॥ २९ ॥
न वध्यो भवतां इन्द्रो यद्यज्ञो भगवत्तनुः ।
यं जिघांसथ यज्ञेन यस्येष्टास्तनवः सुराः ॥ ३० ॥
तदिदं पश्यत महद् धर्मव्यतिकरं द्विजाः ।
इन्द्रेणानुष्ठितं राज्ञः कर्मैतद्विजिघांसता ॥ ३१ ॥
पृथुकीर्तेः पृथोर्भूयात् तर्ह्येकोनशतक्रतुः ।
अलं ते क्रतुभिः स्विष्टैः यद्‍भवान् मोक्षधर्मवित् ॥ ३२ ॥
नैवात्मने महेन्द्राय रोषमाहर्तुमर्हसि ।
उभावपि हि भद्रं ते उत्तमश्लोकविग्रहौ ॥ ३३ ॥

इन्द्रकी इस कुचालका पता लगनेपर परम पराक्रमी महाराज पृथुको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उसपर बाण चढ़ाया ॥ २६ ॥ उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजोंने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्रका वध करनेको तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन् ! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोडक़र और किसीका वध करना उचित नहीं है ॥ २७ ॥ इस यज्ञकार्य में विघ्न डालनेवाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयशसे ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात् से  अग्नि में हवन किये देते हैं॥ २८ ॥
विदुरजी ! यजमानसे इस प्रकार सलाह करके उसके याजकोंने क्रोधपूर्वक इन्द्रका आवाहन किया। वे स्रुवाद्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्माजी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया ॥ २९ ॥ वे बोले, ‘याजको ! तुम्हें इन्द्रका वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान्‌ की ही मूर्ति है। तुम यज्ञद्वारा जिन देवताओंकी आराधना कर रहे हो, वे इन्द्रके ही तो अङ्ग हैं और उसे तुम यज्ञद्वारा मारना चाहते हो ॥ ३० ॥
पृथुके इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्मका उच्छेदन करनेवाला है। इस बातपर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा ॥ ३१ ॥ अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथुके निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो।फिर राजर्षि पृथुसे कहा, ‘राजन् ! आप तो मोक्षधर्मके जाननेवाले हैं; अत: अब आपको इन यज्ञानुष्ठानोंकी आवश्यकता नहीं है ॥ ३२ ॥ आपका मङ्गल हो ! आप और इन्द्रदोनों ही पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीहरिके शरीर हैं; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्रके प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

मास्मिन्महाराज कृथाः स्म चिन्तां
     निशामयास्मद्वच आदृतात्मा ।
यद्ध्यायतो दैवहतं नु कर्तुं
     मनोऽतिरुष्टं विशते तमोऽन्धम् ॥ ३४ ॥
क्रतुर्विरमतामेष देवेषु दुरवग्रहः ।
धर्मव्यतिकरो यत्र पाखण्डैः इन्द्रनिर्मितैः ॥ ३५ ॥
एभिरिन्द्रोपसंसृष्टैः पाखण्डैर्हारिभिर्जनम् ।
ह्रियमाणं विचक्ष्वैनं यस्ते यज्ञध्रुगश्वमुट् ॥ ३६ ॥
भवान्परित्रातुमिहावतीर्णो
     धर्मं जनानां समयानुरूपम् ।
वेनापचारादवलुप्तमद्य
     तद्देहतो विष्णुकलासि वैन्य ॥ ३७ ॥
स त्वं विमृश्यास्य भवं प्रजापते
     सङ्‌कल्पनं विश्वसृजां पिपीपृहि ।
ऐन्द्रीं च मायामुपधर्ममातरं
     प्रचण्डपाखण्डपथं प्रभो जहि ॥ ३८ ॥

मैत्रेय उवाच -
इत्थं स लोकगुरुणा समादिष्टो विशाम्पतिः ।
तथा च कृत्वा वात्सल्यं मघोनापि च सन्दधे ॥ ३९ ॥
कृतावभृथस्नानाय पृथवे भूरिकर्मणे ।
वरान्ददुस्ते वरदा ये तद्‍बर्हिषि तर्पिताः ॥ ४० ॥
विप्राः सत्याशिषस्तुष्टाः श्रद्धया लब्धदक्षिणाः ।
आशिषो युयुजुः क्षत्तः आदिराजाय सत्कृताः ॥ ४१ ॥
त्वयाऽऽहूता महाबाहो सर्व एव समागताः ।
पूजिता दानमानाभ्यां पितृदेवर्षिमानवाः ॥ ४२ ॥

(ब्रह्माजी राजर्षि पृथु से कह रहे हैं) आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआइसके लिये आप चिन्ता न करें। हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये। देखिये, जो मनुष्य विधाताके बिगाड़े हुए कामको बनानेका विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोधमें भरकर भयङ्कर मोहमें फँस जाता है ॥ ३४ ॥ बस, इस यज्ञको बंद कीजिये। इसीके कारण इन्द्रके चलाये हुए पाखण्डोंसे धर्मका नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओंमें बड़ा दुराग्रह होता है ॥ ३५ ॥ जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़ेको चुराकर आपके यज्ञमें विघ्न डाल रहा था, उसीके रचे हुए इन मनोहर पाखण्डोंकी ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही है ॥ ३६ ॥ आप साक्षात् विष्णुके अंश हैं। वेनके दुराचारसे धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्मकी रक्षाके लिये ही आपने उसके शरीरसे अवतार लिया है ॥ ३७ ॥ अत: प्रजापालक पृथुजी ! अपने इस अवतारका उद्देश्य विचारकर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरोंका सङ्कल्प पूर्ण कीजिये। यह प्रचण्ड पाखण्ड-पथरूप इन्द्रकी माया अधर्मकी जननी है। आप इसे नष्ट कर डालिये॥ ३८ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैंलोकगुरु भगवान्‌ ब्रह्माजीके इस प्रकार समझानेपर प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुने यज्ञका आग्रह छोड़ दिया और इन्द्रके साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली ॥ ३९ ॥ इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञोंसे तृप्त हुए देवताओंने उन्हें अभीष्ट वर दिये ॥ ४० ॥ आदिराज पृथुने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणोंने उनके सत्कारसे सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये ॥ ४१ ॥ वे कहने लगे, ‘महाबाहो ! आपके बुलानेसे जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभीका आपने दान-मानसे खूब सत्कार किया॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

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