☼ श्रीदुर्गादेव्यै
नमो नम: ☼
अथ
श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)
मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं
लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा
तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं
तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6॥
शून्यं
तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार
परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7॥
सा
भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना
नारी बभूव तनुमध्यमा॥8॥
खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं
शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्रजम्॥9॥
सा
प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम
कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10॥
राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥ तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥6॥ परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥7॥ वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी। उसका श्रेष्ठ मुख दाढों से सुशोभित था। नेत्र बडे-बडे और कमर पतली थी॥8॥ उसकी चार भुजाएं ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी ॥ 9 ॥ इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहा माता जी ! आपको नमस्कार है । मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये ॥10 ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से
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