॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
वन्दीजन
द्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
मैत्रेय
उवाच -
इति
ब्रुवाणं नृपतिं गायका मुनिचोदिताः ।
तुष्टुवुस्तुष्टमनसः
तद् वाग् अमृतसेवया ॥ १ ॥
नालं
वयं ते महिमानुवर्णने
यो देववर्योऽवततार मायया ।
वेनाङ्गजातस्य
च पौरुषाणि ते
वाचस्पतीनामपि बभ्रमुर्धियः ॥ २ ॥
अथाप्युदारश्रवसः
पृथोर्हरेः
कलावतारस्य कथामृतादृताः ।
यथोपदेशं
मुनिभिः प्रचोदिताः
श्लाघ्यानि कर्माणि वयं वितन्महि ॥ ३ ॥
एष
धर्मभृतां श्रेष्ठो लोकं धर्मेऽनुवर्तयन् ।
गोप्ता
च धर्मसेतूनां शास्ता तत्परिपन्थिनाम् ॥ ४ ॥
एष
वै लोकपालानां बिभर्त्येकस्तनौ तनूः ।
काले
काले यथाभागं लोकयोः उभयोर्हितम् ॥ ५ ॥
वसु
काल उपादत्ते काले चायं विमुञ्चति ।
समः
सर्वेषु भूतेषु प्रतपन् सूर्यवद्विभुः ॥ ॥ ६ ॥
तितिक्षत्यक्रमं
वैन्य उपर्याक्रमतामपि ।
भूतानां
करुणः शश्वद् आर्तानां क्षितिवृत्तिमान् ॥ ७ ॥
देवेऽवर्षत्यसौ
देवो नरदेववपुर्हरिः ।
कृच्छ्रप्राणाः
प्रजा ह्येष रक्षिष्यति अञ्जसेन्द्रवत् ॥ ८ ॥
आप्याययत्यसौ
लोकं वदनामृतमूर्तिना ।
सानुरागावलोकेन
विशदस्मितचारुणा ॥ ९ ॥
अव्यक्तवर्त्मैष
निगूढकार्यो
गम्भीरवेधा उपगुप्तवित्तः ।
अनन्तमाहात्म्यगुणैकधामा
पृथुः प्रचेता इव संवृतात्मा ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—महाराज पृथुने जब इस प्रकार कहा, तब उनके वचनामृतका
आस्वादन करके सूत आदि गायकलोग बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे मुनियोंकी प्रेरणासे उनकी
इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ १ ॥ ‘आप साक्षात् देवप्रवर
श्रीनारायण ही हैं’ जो अपनी मायासे अवतीर्ण हुए हैं; हम आपकी महिमाका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं। आपने जन्म तो राजा वेनके
मृतक शरीरसे लिया है, किन्तु आपके पौरुषोंका वर्णन करनेमें
साक्षात् ब्रह्मादिकी बुद्धि भी चकरा जाती है ॥ २ ॥ तथापि आपके कथामृतके
आस्वादनमें आदर-बुद्धि रखकर मुनियोंके उपदेशके अनुसार उन्हींकी प्रेरणासे हम आपके
परम प्रशंसनीय कर्मोंका कुछ विस्तार करना चाहते हैं, आप
साक्षात् श्रीहरिके कलावतार हैं और आपकी कीर्ति बड़ी उदार है ॥ ३ ॥
‘ये धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ महाराज पृथु लोकको धर्ममें प्रवृत्त करके
धर्ममर्यादाकी रक्षा करेंगे तथा उसके विरोधियोंको दण्ड देंगे ॥ ४ ॥ ये अकेले ही
समय-समयपर प्रजाके पालन, पोषण और अनुरञ्जन आदि कार्यके
अनुसार अपने शरीरमें भिन्न-भिन्न लोकपालोंकी मूर्तिको धारण करेंगे तथा यज्ञ आदिके
प्रचारद्वारा स्वर्गलोक और वृष्टिकी व्यवस्थाद्वारा भूलोक—दोनोंका
ही हित साधन करेंगे ॥ ५ ॥ ये सूर्यके समान अलौकिक महिमान्वित प्रतापवान् और
समदर्शी होंगे। जिस प्रकार सूर्य देवता आठ महीने तपते रहकर जल खींचते हैं और वर्षा
ऋतुमें उसे उड़ेल देते हैं, उसी प्रकार ये कर आदिके द्वारा
कभी धन-सञ्चय करेंगे और कभी उसका प्रजाके हितके लिये व्यय कर डालेंगे ॥ ६ ॥ ये बड़े
दयालु होंगे। यदि कभी कोई दीन पुरुष इनके मस्तकपर पैर भी रख देगा, तो भी ये पृथ्वीके समान उसके इस अनुचित व्यवहारको सदा सहन करेंगे ॥ ७ ॥
कभी वर्षा न होगी और प्रजाके प्राण सङ्कटमें पड़ जायँगे, तो
ये राजवेषधारी श्रीहरि इन्द्रकी भाँति जल बरसाकर अनायास ही उसकी रक्षा कर लेंगे ॥
८ ॥ ये अपने अमृतमय मुखचन्द्रकी मनोहर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे सम्पूर्ण
लोकोंको आनन्दमग्र कर देंगे ॥ ९ ॥ इनकी गतिको कोई समझ न सकेगा, इनके कार्य भी गुप्त होंगे तथा उन्हें सम्पन्न करनेका ढंग भी बहुत गम्भीर
होगा। इनका धन सदा सुरक्षित रहेगा। ये अनन्त माहात्म्य और गुणोंके एकमात्र आश्रय
होंगे। इस प्रकार मनस्वी पृथु साक्षात् वरुणके ही समान होंगे ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वन्दीजन
द्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
दुरासदो
दुर्विषह आसन्नोऽपि विदूरवत् ।
नैवाभिभवितुं
शक्यो वेनारण्युत्थितोऽनलः ॥ ११ ॥
अन्तर्बहिश्च
भूतानां पश्यन् कर्माणि चारणैः ।
उदासीन
इवाध्यक्षो वायुरात्मेव देहिनाम् ॥ १२ ॥
नादण्ड्यं
दण्डयत्येष सुतमात्मद्विषामपि ।
दण्डयत्यात्मजमपि
दण्ड्यं धर्मपथे स्थितः ॥ १३ ॥
अस्याप्रतिहतं
चक्रं पृथोरामानसाचलात् ।
वर्तते
भगवानर्को यावत्तपति गोगणैः ॥ १४ ॥
रञ्जयिष्यति
यल्लोकं अयं आत्मविचेष्टितैः ।
अथ
अमुं आहू राजानं मनोरञ्जनकैः प्रजाः ॥ १५ ॥
दृढव्रतः
सत्यसन्धो ब्रह्मण्यो वृद्धसेवकः ।
शरण्यः
सर्वभूतानां मानदो दीनवत्सलः ॥ १६ ॥
मातृभक्तिः
परस्त्रीषु पत्न्यामर्ध इवात्मनः ।
प्रजासु
पितृवत् स्निग्धः किङ्करो ब्रह्मवादिनाम् ॥ १७ ॥
देहिनां
आत्मवत्प्रेष्ठः सुहृदां नन्दिवर्धनः ।
मुक्तसङ्गप्रसङ्गोऽयं
दण्डपाणिः असाधुषु ॥ १८ ॥
‘महाराज पृथु वेनरूप अरणि के मन्थन से प्रकट हुए अग्नि के समान हैं।
शत्रुओंके लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और दु:सह होंगे। ये उनके समीप रहनेपर भी,
सेनादिसे सुरक्षित रहनेके कारण, बहुत दूर
रहनेवाले-से होंगे। शत्रु कभी इन्हें हरा न सकेंगे ॥ ११ ॥ जिस प्रकार प्राणियोंके
भीतर रहनेवाला प्राणरूप सूत्रात्मा शरीरके भीतर-बाहरके समस्त व्यापारोंको देखते
रहनेपर भी उदासीन रहता है, उसी प्रकार ये गुप्तचरोंके द्वारा
प्राणियोंके गुप्त और प्रकट सभी प्रकारके व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और
स्तुति आदिके प्रति उदासीनवत् रहेंगे ॥ १२ ॥ ये धर्ममार्गमें स्थित रहकर अपने
शत्रुके पुत्रको भी, दण्डनीय न होनेपर, कोई दण्ड न देंगे और दण्डनीय होनेपर तो अपने पुत्रको भी दण्ड देंगे ॥ १३ ॥
भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वततक जितने प्रदेशको अपनी किरणोंसे प्रकाशित करते हैं,
उस सम्पूर्ण क्षेत्रमें इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा ॥ १४ ॥ ये अपने
कार्योंसे सब लोकोंको सुख पहुँचावेंगे—उनका रञ्जन करेंगे;
इससे उन मनोरञ्जनात्मक व्यापारोंके कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी ॥ १५ ॥ ये बड़े दृढ़सङ्कल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मणभक्त, वृद्धोंकी
सेवा करनेवाले, शरणागतवत्सल, सब
प्राणियोंको मान देनेवाले और दीनोंपर दया करनेवाले होंगे ॥ १६ ॥ ये परस्त्रीमें
माताके समान भक्ति रखेंगे, पत्नीको अपने आधे अङ्गके समान
मानेंगे, प्रजापर पिताके समान प्रेम रखेंगे और
ब्रह्मवादियोंके सेवक होंगे ॥ १७ ॥ दूसरे प्राणी इन्हें उतना ही चाहेंगे जितना
अपने शरीरको। ये सुहृदोंके आनन्दको बढ़ायेंगे। ये सर्वदा वैराग्यवान् पुरुषोंसे
विशेष प्रेम करेंगे और दुष्टोंको दण्डपाणि यमराजके समान सदा दण्ड देनेके लिये
उद्यत रहेंगे ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
वन्दीजन
द्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
अयं
तु साक्षाद्भगवान् त्र्यधीशः
कूटस्थ आत्मा कलयावतीर्णः ।
यस्मिन्
अविद्यारचितं निरर्थकं
पश्यन्ति नानात्वमपि प्रतीतम् ॥ १९ ॥
अयं
भुवो मण्डलमोदयाद्रेः
गोप्तैकवीरो नरदेवनाथः ।
आस्थाय
जैत्रं रथमात्तचापः
पर्यस्यते दक्षिणतो यथार्कः ॥ २० ॥
अस्मै
नृपालाः किल तत्र तत्र
बलिं हरिष्यन्ति सलोकपालाः ।
मंस्यन्त
एषां स्त्रिय आदिराजं
चक्रायुधं तद्यश उद्धरन्त्यः ॥ २१ ॥
अयं
महीं गां दुदुहेऽधिराजः
प्रजापतिर्वृत्तिकरः प्रजानाम् ।
यो
लीलयाद्रीन् स्वशरासकोट्या
भिन्दन् समां गामकरोद्यथेन्द्रः ॥ २२ ॥
विस्फूर्जयन्नाजगवं
धनुः स्वयं
यदाचरत्क्ष्मामविषह्यमाजौ ।
तदा
निलिल्युर्दिशि दिश्यसन्तो
लाङ्गूलमुद्यम्य यथा मृगेन्द्रः ॥ २३ ॥
एषोऽश्वमेधान्
शतमाजहार
सरस्वती प्रादुरभावि यत्र ।
अहारषीद्यस्य
हयं पुरन्दरः
शतक्रतुश्चरमे वर्तमाने ॥ २४ ॥
एष
स्वसद्मोपवने समेत्य
सनत्कुमारं भगवन्तमेकम् ।
आराध्य
भक्त्यालभतामलं तद्
ज्ञानं यतो ब्रह्म परं विदन्ति ॥ २५ ॥
तत्र
तत्र गिरस्तास्ता इति विश्रुतविक्रमः ।
श्रोष्यत्यात्माश्रिता
गाथाः पृथुः पृथुपराक्रमः ॥ २६ ॥
दिशो
विजित्याप्रतिरुद्धचक्रः
स्वतेजसोत्पाटितलोकशल्यः
।
सुरासुरेन्द्रैरुपगीयमान
महानुभावो
भविता पतिर्भुवः ॥ २७ ॥
‘तीनों गुणोंके अधिष्ठाता और निर्विकार साक्षात् श्रीनारायणने ही इनके(पृथु
के) रूपमें अपने अंशसे अवतार लिया है, जिनमें पण्डितलोग
अविद्यावश प्रतीत होनेवाले इस नानात्व को मिथ्या ही समझते हैं ॥ १९ ॥ ये अद्वितीय
वीर और एकच्छत्र सम्राट् होकर अकेले ही उदयाचलपर्यन्त समस्त भूमण्डलकी रक्षा
करेंगे तथा अपने जयशील रथपर चढक़र धनुष हाथमें लिये सूर्यके समान सर्वत्र
प्रदक्षिणा करेंगे ॥ २० ॥ उस समय जहाँ-तहाँ सभी लोकपाल और पृथ्वीपाल इन्हें भेंटें
समर्पण करेंगे, उनकी स्त्रियाँ इनका गुणगान करेंगी और इन
आदिराजको साक्षात् श्रीहरि ही समझेंगी ॥ २१ ॥ ये प्रजापालक राजाधिराज होकर प्रजाके
जीवननिर्वाहके लिये गोरूपधारिणी पृथ्वीका दोहन करेंगे और इन्द्रके समान अपने
धनुषके कोनोंसे बातों-की-बातमें पर्वतोंको तोड़- फोडक़र पृथ्वीको समतल कर देंगे ॥
२२ ॥ रणभूमिमें कोई भी इनका वेग नहीं सह सकेगा। जिस समय ये जंगलमें पूँछ उठाकर
विचरते हुए सिंहके समान अपने ‘आजगव’ धनुषका
टंकार करते हुए भूमण्डलमें विचरेंगे, उस समय सभी दुष्टजन
इधर-उधर छिप जायँगे ॥ २३ ॥ ये सरस्वतीके उद्गमस्थानपर सौ अश्वमेधयज्ञ करेंगे। तब
अन्तिम यज्ञानुष्ठानके समय इन्द्र इनके घोड़ेको हरकर ले जायँगे ॥ २४ ॥ अपने महलके
बगीचेमें इनकी एक बार भगवान् सनत्कुमारसे भेंट होगी। अकेले उनकी भक्तिपूर्वक सेवा
करके ये उस निर्मल ज्ञानको प्राप्त करेंगे, जिससे परब्रह्मकी
प्राप्ति होती है ॥ २५ ॥ इस प्रकार जब इनके पराक्रम जनताके सामने आ जायँगे,
तब ये परमपराक्रमी महाराज जहाँ-तहाँ अपने चरित्रकी ही चर्चा सुनेंगे
॥ २६ ॥ इनकी आज्ञाका विरोध कोई भी न कर सकेगा तथा ये सारी दिशाओंको जीतकर और अपने
तेजसे प्रजाके क्लेशरूप काँटेको निकालकर सम्पूर्ण भूमण्डलके शासक होंगे। उस समय
देवता और असुर भी इनके विपुल प्रभावका वर्णन करेंगे’ ॥ २७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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