सोमवार, 1 अप्रैल 2019

पुत्रगीता (पोस्ट 02)



||श्रीहरि||


पुत्रगीता (पोस्ट 02)

पितोवाच
वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्रानिच्छेत् पावनार्थ पितृणाम्।
अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो वनं प्रविश्याथ मुनिर्बभूषेत्॥६॥

पुत्र उवाच
एवमभ्याहते लोके समन्तात् परिवारिते।
अमोघासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे॥७॥

पिताने कहा-बेटा! द्विजको चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे; फिर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके पितरोंकी सद्गतिके लिये पुत्र पैदा करनेकी इच्छा करे। विधिपूर्वक त्रिविध अग्नियों की स्थापना करके यज्ञोंका अनुष्ठान करे। तत्पश्चात् वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। उसके बाद मौनभावसे रहते हुए संन्यासी होनेकी इच्छा करे॥६॥
पुत्रने कहा-पिताजी! यह लोक जब इस प्रकारसे मृत्युद्वारा मारा जा रहा है, जरा-अवस्था द्वारा चारों ओर से घेर लिया गया है, दिन और रात सफलतापूर्वक आयुक्षयरूप काम करके बीत रहे हैं ऐसी दशा में भी आप धीर की भाँति कैसी बात कर रहे हैं? ॥ ७ ॥

----गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड 1958) से




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