||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 06)
सञ्चिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम्।
व्याघ्रः पशुमिवादाय मृत्युरादाय गच्छति॥१९
॥
इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम्।
एवमीहासुखासक्तं कृतान्तः कुरुते वशे॥२०॥
कृतानां फलमप्राप्तं कर्मणां कर्मसंज्ञितम्।
क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति॥२१॥
दुर्बलं बलवन्तं च शूरं भीरु जडे कविम्।
अप्राप्तं सर्वकामार्थान् मृत्युरादाय
गच्छति॥ २२॥
मृत्युर्जरा च व्याधिश्च दुःखं चानेककारणम्।
अनुषक्तं यदा देहे किं स्वस्थ इव तिष्ठसि॥२३॥
जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चान्वेति देहिनम्।
अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्माः॥२४॥
जबतक मनुष्य भोगोंसे तृप्त नहीं होता, संग्रह ही करता रहता है, तभीतक ही उसे मौत आकर ले जाती
है। ठीक वैसे ही, जैसे व्याघ्र किसी पशुको ले जाता है॥ १९ ॥
मनुष्य सोचता है कि यह काम पूरा हो गया,
यह अभी करना है और यह अधूरा ही पड़ा है; इस प्रकार
चेष्टाजनित सुखमें आसक्त हुए मानवको काल अपने वशमें कर लेता है॥ २०॥
मनुष्य अपने खेत, दूकान और घरमें ही फँसा
रहता है, उसके किये हुए उन कर्मोंका फल मिलने भी नहीं पाता,
उसके पहले ही उस कर्मासक्त मनुष्य को मृत्यु उठा ले जाती है॥ २१ ॥
कोई दुर्बल हो या बलवान्, शूरवीर
हो या डरपोक तथा मूर्ख हो या विद्वान्, मृत्यु उसकी समस्त कामनाओंके
पूर्ण होने से पहले ही उसे उठा ले जाती है॥ २२॥
पिताजी ! जब इस शरीरमें मृत्यु, जरा,
व्याधि और अनेक कारणोंसे होनेवाले दुःखोंका आक्रमण होता ही रहता है,
तब आप स्वस्थ से होकर क्यों बैठे हैं ?॥ २३ ॥
देहधारी जीवके जन्म लेते ही अन्त करनेके लिये मौत और बुढ़ापा उसके पीछे
लग जाते हैं। ये समस्त चराचर प्राणी इन दोनोंसे बँधे हुए हैं॥ २४॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से
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