||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 08)
न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित्
प्रबाधते।
ऋते सत्यमसत् त्याज्यं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्॥
२८॥
तस्मात् सत्यव्रताचारः सत्ययोगपरायणः।
सत्यागमः सदा दान्तः सत्येनैवान्तकं
जयेत्॥२९॥
अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्।
मृत्युमापद्यते मोहात् सत्येनापद्यतेऽमृतम्
॥ ३०॥
सोऽहं ह्यहिंस्रः सत्यार्थी कामक्रोधबहिष्कृतः।
समदुःखसुखः क्षेमी मृत्यु हास्याम्यमर्त्यवत्
॥ ३१॥
शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो
मुनिः।
वाह्मनःकर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने॥३२॥
सत्यके बिना कोई भी मनुष्य सामने आते हुए मृत्युकी सेनाका कभी सामना नहीं
कर सकता; इसलिये असत्यको त्याग देना चाहिये; क्योंकि अमृतत्व सत्यमें ही स्थित है॥ २८॥ अतः मनुष्यको सत्यव्रतका आचरण करना
चाहिये। सत्ययोगमें तत्पर रहना और शास्त्रकी बातोंको सत्य मानकर श्रद्धापूर्वक सदा
मन और इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। इस प्रकार सत्यके द्वारा ही मनुष्य मृत्युपर
विजय पा सकता है॥ २९॥
अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीरमें ही स्थित हैं। मनुष्य मोहसे मृत्युको
और सत्यसे अमृत को प्राप्त होता है॥३०॥ अतः अब मैं हिंसा से दूर रहकर सत्यकी खोज करूंगा,
काम और क्रोध को हृदयसे निकालकर दुःख और सुखमें समान भाव रबँगा तथा सबके
लिये कल्याणकारी बनकर देवताओंके समान मृत्युके भयसे मुक्त हो जाऊँगा ॥ ३१॥ मैं निवृत्तिपरायण
होकर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर रहूँगा, मन और इन्द्रियों को वश
में रखकर ब्रह्मयज्ञ (वेद-शास्त्रोंके स्वाध्याय)
में लग जाऊँगा और मुनिवृत्तिसे रहूँगा। उत्तरायणके मार्गसे जानेके लिये
मैं जप और स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और अग्निहोत्र
एवं गुरुशुश्रूषादिरूप कर्मयज्ञका अनुष्ठान करूंगा ॥ ३२॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से
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