||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 09)
पशुयज्ञैः कथं हिंस्त्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति।
अन्तवद्भिरिव प्राज्ञः क्षेत्रयज्ञैः
पिशाचवत्॥ ३३॥
यस्य वाङ्मनसी स्यातां सम्यक् प्रणिहिते
सदा।
तपस्त्यागश्च सत्यं च स वै सर्वमवाप्नुयात्॥
३४॥
मेरे-जैसा विद्वान् पुरुष नश्वर फल देनेवाले हिंसायुक्त पशुयज्ञ
और पिशाचोंके समान अपने शरीरके ही रक्त-मांसद्वारा किये जानेवाले
तामस यज्ञोंका अनुष्ठान कैसे कर सकता है?॥ ३३॥
जिसकी वाणी और मन दोनों सदा भलीभाँति एकाग्र रहते हैं। तथा जो त्याग,
तपस्या और सत्यसे सम्पन्न होता है, वह निश्चय ही
सब कुछ प्राप्त कर सकता है॥ ३४॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से
जय जय श्रीकृष्ण
जवाब देंहटाएंजय श्रीकृष्ण
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