।। श्रीहरिः ।।
अलौकिक प्रेम
(पोस्ट.०१ )
शरत्पूर्णिमाकी
चाँदनी रातमें जब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी बाँसुरी बजानी आरम्भ की,
तब उसकी मधुर एवं चित्ताकर्षक ध्वनिको सुनकर गोपियाँ जिस अवस्थामें
थीं, उसी अवस्थामें श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये वेगपूर्वक चल
पड़ीं । यह प्रेमकी ऐसी विलक्षण स्थिति थी कि स्वयं गोपियों को ही पता नहीं था कि
हम कौन हैं ! कहाँ जा रही हैं ! क्यों जा रही हैं ! भगवान्का सब कुछ दिव्य है,
अलौकिक है, चिन्मय है ! अतः उनकी बाँसुरी भी
दिव्य थी और उसकी ध्वनि भी । उस दिव्य ध्वनि को सुनने पर गोपियों में भी जडता नहीं
रही और वे चिन्मय होकर चिन्मय से मिलने के लिये चल पड़ी !
‘काम’ (लौकिक श्रृंगार)-में
स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरेसे सुख लेना चाहते हैं, एक-दूसरेको
अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं । इसलिये उनमें विशेष सावधानी रहती है और वे अपने
शरीरको सजाते हैं । परन्तु ‘प्रेम’ में
सुख लेनेका, अपनी ओर खींचनेका किञ्चिन्मात्र भी भाव न होनेसे
यह सावधानी नहीं रहती, प्रत्युत अपने शरीरकी भी विस्मृति हो
जाती है, इसीलिये गोपियाँ अपनेको सजाना, श्रृंगार करना भूल गयीं और वंशीध्वनि सुनते ही वे जैसी थीं, वैसी ही अस्त-व्यस्त वस्त्रोंके साथ चल पड़ी‒‘व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः
काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः’ (श्रीमद्भा॰ १० । २९ । ७) ।
उस समय कुछ गोपियोंको
उनके पति, पुत्र आदिने अथवा पिता, भाई
आदिने घरमें ही बन्द कर दिया, जिससे उनको घरसे निकलनेका
मार्ग नहीं मिला । मार्ग न मिलनेपर उन गोपियोंकी क्या दशा हुई‒इस विषयमें श्रीशुकदेवजी महाराज कहते हैं‒
दुःसहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभाः
।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या
क्षीणमङ्गलाः ॥
तमेव परमात्मानं
जारबुद्ध्यापि सङ्गताः ।
जहुर्गुणमयं देहं
सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ॥
..............(श्रीमद्भा॰
१० । २९ । १०-११)
‘उन गोपियोंके हृदयमें अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके
असह्य विरहका जो तीव्र ताप हुआ, उससे उनका अशुभ जल गया और
ध्यानमें आये हुए श्रीकृष्णका आलिंगन करनेसे जो सुख हुआ, उससे
उनका मंगल नष्ट हो गया ।’
‘यद्यपि उन गोपियोंकी श्रीकृष्णमें जारबुद्धि थी,
फिर भी एकमात्र परमात्मा (श्रीकृष्ण)-के साथ सम्बन्ध होनेसे उनके
सम्पूर्ण बन्धन तत्काल एवं सर्वथा नष्ट हो गये और उन्होंने अपने गुणमय शरीरका
त्याग कर दिया ।’
अगर उपर्युक्त
श्लोकोंपर विचार करते हुए ऐसा मानें कि भगवान्के विरहकी तीव्र जलनसे गोपियोंके
पाप नष्ट हो गये‒‘धुताशुभाः’ तथा ध्यानजनित
सुखसे पुण्य नष्ट हो गये‒‘क्षीणमङ्गलाः’ और इस प्रकार पाप-पुण्यसे रहित (मुक्त) होकर वे भगवान्से जा मिलीं तो यह
बात युक्तिसंगत नहीं दीखती । कारण कि विरह और मिलन पाप-पुण्यसे ऊँचा उठनेपर ही
होते हैं ।
(शेष आगामी पोस्ट में
)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तक से
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