शुक्रवार, 17 मई 2019

अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०२ )


।। श्रीहरिः ।।
अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०२ )

पाप-पुण्यसे होनेवाले सुख-दुःख तो प्राकृत हैं, पर भगवान्‌को लेकर होनेवाले सुख-दुःख (मिलन-विरह) प्राकृत नहीं हैं, प्रत्युत अलौकिक हैं । भगवान्‌का विरह और मिलन तो गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होता है, पर पाप और पुण्य गुणोंके सम्बन्धसे होते हैं । गुणोंसे सम्बन्ध न हो तो पाप-पुण्य हो सकते ही नहीं । भगवान्‌के प्रेममें होनेवाले सुख-दुःखको अर्थात् मिलन-विरहको पाप-पुण्यका फल कहना वास्तवमें उसकी निन्दा है । भगवान्‌के सम्बन्धसे योग होता है, भोग नहीं होता । भोग तो पापोंका कारण है[*] ।
एक विचारणीय बात है कि पाप और पुण्यका नाश सुखी-दुःखी होनेसे नहीं होता, प्रत्युत अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आनेसे होता है । सुखी-दुःखी होना पाप-पुण्यका फल नहीं है, प्रत्युत अज्ञता (मूर्खता)-का फल है । परन्तु भगवान्‌का विरह प्रेमका फल है । भगवान्‌से सम्बन्ध होनेपर अज्ञता कैसे रह सकती है ! अज्ञता न ज्ञानमें रहती है, न प्रेममें । मनुष्य तभीतक सुखी-दुःखी होता है, जबतक उसको अपने स्वरूपका बोध नहीं होता अथवा उसका भगवान्‌में प्रेम नहीं होता ।
पाप-पुण्य नष्ट होना कोई बड़ी बात नहीं है । पाप-पुण्य तो हरेक आदमीके नष्ट होते रहते हैं; क्योंकि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति हरेक प्राणीके सामने आती-जाती रहती है । स्वर्गमें निरन्तर पुण्योंका नाश होता है और नरकोंमें निरन्तर पापोंका नाश होता है । पाप-पुण्य प्रकृतिजन्य गुणोंके अन्तर्गत हैं । अतः पाप-पुण्य दोनों एक ही जातिके (बन्धनकारक) हैं, अशुभ हैं, मलिन हैं, उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । परन्तु भगवान्‌के सम्बन्धसे होनेवाले विरह तथा मिलन अत्यन्त दिव्य हैं, चिन्मय हैं, अलौकिक हैं, नित्य हैं और प्रेमकी वृद्धि करनेवाले हैं । भगवान्‌के सम्बन्धसे केवल पाप-पुण्य ही नष्ट नहीं होते, प्रत्युत पाप-पुण्यका कारण अज्ञान (गुणसंग) ही नष्ट हो जाता है । इसलिये पाप-पुण्यका और विरह-मिलनका विभाग ही अलग है ।
तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता प्रत्युत सुख-दुःखसे रहित होता है । ज्ञानीके सामने भी प्रारब्धके अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आती-जाती रहती है, पर उसपर परिस्थितिका असर नहीं होता अर्थात् वह सुखी-दुःखी नहीं होता; क्योंकि वह गुणातीत है‒‘समदुःखसुखःस्वस्थः’ (गीता १४ । २४) । अगर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति सुख-दुःख देनेवाली होती अर्थात् सुख-दुःख पाप-पुण्यका फल होता तो मनुष्य कभी सुख-दुःखसे रहित नहीं हो पाता, जबकि ज्ञानी पुरुष सुख-दुःखसे रहित हो जाता है‒‘दन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः’ (गीता १५ । ५) ।
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[*] काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
(गीता ३ । ३७)
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मेरे तो गिरधर गोपालपुस्तकसे




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