॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०१)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
श्रीराजोवाच
समः
प्रियः सुहृद्ब्रह्मन्भूतानां भगवान्स्वयम्
इन्द्र
स्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ||१||
न
ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः
नैवासुरेभ्यो
विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि ||२||
इति
नः सुमहाभाग नारायणगुणान्प्रति
संशयः
सुमहान्जातस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति ||३||
श्रीऋषिरुवाच
साधु
पृष्टं महाराज हरेश्चरितमद्भुतम्
यद्भागवतमाहात्म्यं
भगवद्भक्तिवर्धनम् ||४||
गीयते
परमं पुण्यमृषिभिर्नारदादिभिः
नत्वा
कृष्णाय मुनये कथयिष्ये हरेः कथाम् ||५||
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! भगवान् तो स्वभाव से ही भेदभाव से रहित हैं—सम हैं, समस्त प्राणियों के प्रिय और सुहृद् हैं;
फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभाव से
अपने मित्र का पक्ष ले और शत्रुओं का अनिष्ट करे, उसी प्रकार
इन्द्र के लिये दैत्यों का वध क्यों किया ? ॥ १ ॥ वे स्वयं
परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओं से कुछ
लेना-देना नहीं है । तथा निर्गुण होने के कारण दैत्यों से कुछ वैर-विरोध और उद्वेग
भी नहीं है ॥ २ ॥ भगवत्प्रेम के सौभाग्यसे सम्पन्न महात्मन् ! हमारे चित्त में
भगवान् के समत्व आदि गुणों के सम्बन्ध में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है । आप कृपा
करके उसे मिटाइये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—महाराज ! भगवान् के अद्भुत चरित्रके सम्बन्ध में
तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न
किया;
क्योंकि ऐसे प्रसङ्ग प्रह्लाद आदि भक्तों की महिमासे परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवणसे भगवान् की
भक्ति बढ़ती है ॥ ४ ॥ इस परम पुण्यमय प्रसङ्ग को
नारदादि महात्मागण बड़े प्रेम से
गाते रहते हैं । अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनि को नमस्कार करके भगवान् की
लीला-कथा का वर्णन करता हूँ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें