॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०२)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
निर्गुणोऽपि
ह्यजोऽव्यक्तो भगवान्प्रकृतेः परः
स्वमायागुणमाविश्य
बाध्यबाधकतां गतः ||६||
सत्त्वं
रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः
न
तेषां युगपद्रा जन्ह्रास उल्लास एव वा ||७||
जयकाले
तु सत्त्वस्य देवर्षीन्रजसोऽसुरान्
तमसो
यक्षरक्षांसि तत्कालानुगुणोऽभजत् ||८||
ज्योतिरादिरिवाभाति
सङ्घातान्न विविच्यते
विदन्त्यात्मानमात्मस्थं
मथित्वा कवयोऽन्ततः ||९||
वास्तव में भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृति से परे हैं। ऐसा होनेपर भी अपनी माया के गुणों को
स्वीकार करके वे बाध्यबाधकभाव को
अर्थात् मरने और मारने वाले दोनों के परस्परविरोधी रूपों को
ग्रहण करते हैं ॥ ६ ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण—ये प्रकृति के
गुण हैं,
परमात्मा के नहीं। परीक्षित् ! इन तीनों गुणों की भी एक साथ ही
घटती-बढ़ती नहीं होती ॥ ७ ॥ भगवान् समय-समय के अनुसार गुणों को स्वीकार करते हैं।
सत्त्वगुण की वृद्धि के समय देवता और ऋषियोंका, रजोगुणकी
वृद्धि के समय दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि के समय वे यक्ष एवं राक्षसोंको
अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं ॥ ८ ॥ जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न
आश्रयोंमें रहनेपर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परंतु मन्थन
करनेपर वह प्रकट हो जाती है—वैसे ही परमात्मा सभी शरीरोंमें
रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परंतु विचारशील पुरुष
हृदयमन्थन करके—उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओंका बाध करके अन्तत:
अपने हृदयमें ही अन्तर्यामीरूपसे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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