॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०३)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
यदा
सिसृक्षुः पुर आत्मनः परो रजः सृजत्येष पृथक्स्वमायया
सत्त्वं
विचित्रासु रिरंसुरीश्वरः शयिष्यमाणस्तम ईरयत्यसौ ||१०||
कालं
चरन्तं सृजतीश आश्रयं प्रधानपुम्भ्यां नरदेव सत्यकृत्
य
एष राजन्नपि काल ईशिता सत्त्वं सुरानीकमिवैधयत्यतः
तत्प्रत्यनीकानसुरान्सुरप्रियो
रजस्तमस्कान्प्रमिणोत्युरुश्रवाः ||११||
जब
परमेश्वर अपने लिये शरीरों का निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी माया से रजोगुण की अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियों में
रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुणकी सृष्टि करते हैं और जब
वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुणको बढ़ा देते हैं ॥ १० ॥
परीक्षित् ! भगवान् सत्यसङ्कल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्ति के निमित्तभूत
प्रकृति और पुरुष के सहकारी एवं आश्रय काल की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे काल के
अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है। राजन् ! ये कालस्वरूप ईश्वर
जब सत्त्वगुणकी वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओंका बल
बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी रजोगुणी एवं तमोगुणी
दैत्यों का संहार करते हैं। वस्तुत: वे सम ही हैं ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें