॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०४)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
अत्रैवोदाहृतः
पूर्वमितिहासः सुरर्षिणा
प्रीत्या
महाक्रतौ राजन्पृच्छतेऽजातशत्रवे ||१२||
दृष्ट्वा
महाद्भुतं राजा राजसूये महाक्रतौ
वासुदेवे
भगवति सायुज्यं चेदिभूभुजः ||१३||
तत्रासीनं
सुरऋषिं राजा पाण्डुसुतः क्रतौ
पप्रच्छ
विस्मितमना मुनीनां शृण्वतामिदम् ||१४||
श्रीयुधिष्ठिर
उवाच
अहो
अत्यद्भुतं ह्येतद्दुर्लभैकान्तिनामपि
वासुदेवे
परे तत्त्वे प्राप्तिश्चैद्यस्य विद्विषः ||१५||
राजन्
! इसी विषयमें देवर्षि नारदने बड़े प्रेमसे एक इतिहास कहा था। यह उस समयकी बात है, जब राजसूय यज्ञमें तुम्हारे दादा युधिष्ठिरने उनसे इस सम्बन्धमें एक प्रश्न
किया था ॥ १२ ॥ उस महान् राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठर ने अपनी आँखोंके सामने
बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान्
श्रीकृष्णमें समा गया ॥ १३ ॥ वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटनासे
आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिरने बड़े-बड़े मुनियोंसे भरी हुई सभा में उस
यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारदसे यह प्रश्न किया ॥ १४ ॥
युधिष्ठिरने
पूछा—अहो ! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण में समा
जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तोंके लिये भी दुर्लभ है; फिर
भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली ? ॥
१५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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