बुधवार, 3 जुलाई 2019

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

श्रीराम जय राम जय जय राम !
श्रीराम जय राम जय जय राम !!

दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा (पोस्ट 01)

“दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा । रावन नाम बीर बरिबंडा ।।
भूप अनुज अरि मर्दन नामा ।भयउ सो कुँभकरन बल धामा ।।
सचिव जो रहा धर्म रूचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ।।“

(वही राजा [प्रताप भानु] परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ । उसके दस सिर बीस भुजाएं थी और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूर वीर था । अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था वह बल का धाम कुम्भकरण हुआ । उसका (राजा प्रतापु भानु का) जो मन्त्री था, जिसका नाम धर्मरूचि था, वह रावण का सौतेला(बिमात्र) छोटा भाई हुआ)

“श्रीरामचरितमानस कल्प वाले रावण और कुम्भकर्ण सहोदर भ्राता थे | विभीषण जी रावण के सौतेले भाई थे | अत: मानसकल्प वाली कथा, वाल्मीकीय और अध्यात्म आदि रामायणों से भिन्न कल्प की है | इन रामायणों के रावण,कुम्भकर्ण और विभीषण सहोदर भ्राता थे | महाभारत वनपर्व में जिस रावण की कथा मार्कंडेय मुनि ने युधिष्ठिर जी से कही है उसका भी विभीषण सौतेला भाई था | कथा इस प्रकार है-- पुलस्त्यजी ब्रह्मा के परमप्रिय मानस पुत्र थे | पुलस्त्य जी की स्त्रीका नाम ‘गौ’ था; उससे वैश्रवण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | वैश्रवण, पिता को छोड़कर पितामह ब्रह्माजी की सेवा में रहने लगा | इससे पुलस्त्यजी को बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने (वैश्रवण को दण्ड देने के लिए) अपने-आपको ही दूसरे शरीर से प्रकट किया | इसप्रकार अपने आधे शरीर से रूपान्तर धारणकर पुलस्त्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए | विश्रवाजी वैश्रवण पर सदा कुपित रहा करते थे | किन्तु ब्रह्माजी उन पर प्रसन्न थे, इसलिए उन्होंने उसे अमरत्व प्रदान किया, समस्त धन का स्वामी और लोकपाल बनाया, महादेव जी से उनकी मित्रता करादी और नलकूबर नामक पुत्र प्रदान किया | साथ ही ब्रह्माजी ने उनको राक्षसों से भरी लंका का आधिपत्य और इच्छानुसार विचरने वाला पुष्पकविमान दिया तथा यक्षों का स्वामी बनाकर उन्हें ‘राजराज’ की उपाधि भी दी |

कुबेर (वैश्रवण) जी पिता के दर्शन को प्राय: जाया करते थे | विश्रवा मुनि उन्हें कुपित दृष्टि से देखने लगे | कुबेर को जब मालूम हुआ कि मेरे पिता मुझसे रुष्ट हैं तब उन्होंने उनको प्रसन्न करने के लिए पुष्पोत्कटा, राका, और मालिनी नाम की परम सुन्दरी तथा नृत्यगान में निपुण तीन निशाचर कन्याएं उनकी सेवा में नियुक्त कर दीं | तीनों अपना-अपना स्वार्थ भी चाहती थीं, इससे तीनों लाग-डाँट से विश्रवा मुनि को सन्तुष्ट करने में लग गईं | मुनि ने सेवा से प्रसन्न होकर तीनों को लोकपालों के सदृश पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया |

शेष आगामी पोस्ट में .....
----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मानस-पीयूष” खण्ड २ (पुस्तक कोड ८८) से |


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...