!!ॐ श्रीपरमात्मने नमः!!
१- कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है । मुक्ति में मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है । मनुष्यमात्र विवेकवान है । मनुष्यमात्र में जानने, करने और मानने की शक्ति है ।
स्वरूप का बोध होनेपर ब्रह्म का ज्ञान हो जायगा, पर ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा । जो ईश्वर को नहीं जान सके, उन्होंने ईश्वर को कल्पित मान लिया ! तत्त्वज्ञान होनेपर भी प्रेम शेष रह जायेगा । वह प्रेम ईश्वर की कृपा से होगा । बढ़ने-घटनेवाली चीज तो जड़ होती है, पर प्रेम तो बढ़ता-ही-बढ़ता रहता है ।
२- भगवान की बात तत्त्वज्ञान से विलक्षण है―
'तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।।
(मानस, अयोध्या० १२७ । २)
भगवान मिलें तो भेड़-बकरी चरानेवाले को मिल जायँ, अन्यथा षट्शास्त्रों के पण्डित को भी नहीं मिलें ! विश्वास हो तो उनकी प्राप्ति बहुत सुगम है । नाशवान में विश्वास होनेसे ही कठिनता है ।
― परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी
('सागर के मोती' पुस्तक से)
१- कल्याण तो स्वाभाविक है, पर लोगों ने इसे हौआ बना दिया है । मुक्ति में मनुष्यमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है । मनुष्यमात्र विवेकवान है । मनुष्यमात्र में जानने, करने और मानने की शक्ति है ।
स्वरूप का बोध होनेपर ब्रह्म का ज्ञान हो जायगा, पर ईश्वर का ज्ञान नहीं होगा । जो ईश्वर को नहीं जान सके, उन्होंने ईश्वर को कल्पित मान लिया ! तत्त्वज्ञान होनेपर भी प्रेम शेष रह जायेगा । वह प्रेम ईश्वर की कृपा से होगा । बढ़ने-घटनेवाली चीज तो जड़ होती है, पर प्रेम तो बढ़ता-ही-बढ़ता रहता है ।
२- भगवान की बात तत्त्वज्ञान से विलक्षण है―
'तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।।
(मानस, अयोध्या० १२७ । २)
भगवान मिलें तो भेड़-बकरी चरानेवाले को मिल जायँ, अन्यथा षट्शास्त्रों के पण्डित को भी नहीं मिलें ! विश्वास हो तो उनकी प्राप्ति बहुत सुगम है । नाशवान में विश्वास होनेसे ही कठिनता है ।
― परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी
('सागर के मोती' पुस्तक से)
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