॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
ततो
मे मातरमृषिः समानीय निजाश्रमे
आश्वास्येहोष्यतां
वत्से यावत्ते भर्तुरागमः ||१२||
तथेत्यवात्सीद्देवर्षेरन्तिके
साकुतोभया
यावद्दैत्यपतिर्घोरात्तपसो
न न्यवर्तत ||१३||
ऋषिं
पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती
अन्तर्वत्नी
स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ||१४||
ऋषिः
कारुणिकस्तस्याः प्रादादुभयमीश्वरः
धर्मस्य
तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम् ||१५||
तत्तु
कालस्य दीर्घत्वात्स्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे
ऋषिणानुगृहीतं
मां नाधुनाप्यजहात्स्मृतिः ||१६||
भवतामपि
भूयान्मे यदि श्रद्दधते वचः
वैशारदी
धीः श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ||१७||
(प्रह्लादजी कह रहे हैं)
इसके
बाद देवर्षि नारदजी मेरी माता को अपने आश्रमपर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि—‘बेटी ! जबतक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तबतक
तुम यहीं रहो’ ॥ १२ ॥ ‘जो आज्ञा’
कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रमपर ही रहने लगी और तबतक
रही, जबतक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये ॥ १३ ॥
मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मङ्गलकामना से और इच्छित समयपर (अर्थात्
मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति
के साथ नारदजी की सेवा-शुश्रूषा करती रही ॥ १४ ॥
देवर्षि
नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवतधर्म का रहस्य और
विशुद्ध ज्ञान—दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझपर भी थी ॥ १५ ॥ बहुत
समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की
स्मृति नहीं रही, परंतु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण
मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥१६॥ यदि तुमलोग मेरी इस बातपर श्रद्धा करो तो
तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि
भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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