॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
जन्माद्याः
षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः
फलानामिव
वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ||१८|
आत्मा
नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः
अविक्रियः
स्वदृघेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ||१९||
एतैर्द्वादशभिर्विद्वानात्मनो
लक्षणैः परैः
अहं
ममेत्यसद्भावं देहादौ मोहजं त्यजेत् ||२०||
स्वर्णं
यथा ग्रावसु हेमकारः क्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात्
क्षेत्रेषु
देहेषु तथात्मयोगैरध्यात्मविद्ब्रह्मगतिं लभेत ||२१||
(प्रह्लादजी कह रहे हैं)
जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते,ठहरते,बढ़ते,पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं—वैसे ही जन्म,
अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश—ये छ:
भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं,आत्मा से इनका कोई
सम्बन्ध नहीं है ॥१८॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ,
आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश,
सब का कारण, व्यापक, असङ्ग
तथा आवरणरहित है ॥ १९ ॥ ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा
आत्मतत्त्व को जाननेवाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ २० ॥ जिस
प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि
जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायोंद्वारा
अपने शरीररूप क्षेत्रमें ही ब्रह्मपदका साक्षात्कार कर लेता है ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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