बुधवार, 3 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद जी के उपदेश का वर्णन

नीयमानां भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव
यदृच्छयागतस्तत्र देवर्षिर्ददृशे पथि ||||
प्राह नैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम्
मुञ्च मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ||||

श्रीइन्द्र उवाच
आस्तेऽस्या जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः
आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ||||

श्रीनारद उवाच
अयं निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान्
त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ||१०||
इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन्वचः
अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ||११||

(प्रह्लादजी कह रहे हैं) मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे । दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी मा को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा—‘देवराज ! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं । महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !॥८॥
इन्द्रने कहाइसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है । प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जानेपर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ ९ ॥
नारदजी ने कहा—‘इसके गर्भ में भगवान्‌ का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक,अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुम में उस को मारने की शक्ति नहीं है॥ १० ॥ देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया । और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये ॥११॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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