॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
नीयमानां
भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव
यदृच्छयागतस्तत्र
देवर्षिर्ददृशे पथि ||७||
प्राह
नैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम्
मुञ्च
मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ||८||
श्रीइन्द्र
उवाच
आस्तेऽस्या
जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः
आस्यतां
यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ||९||
श्रीनारद
उवाच
अयं
निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान्
त्वया
न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ||१०||
इत्युक्तस्तां
विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन्वचः
अनन्तप्रियभक्त्यैनां
परिक्रम्य दिवं ययौ ||११||
(प्रह्लादजी कह रहे हैं)
मेरी
माँ भय से
घबराकर कुररी पक्षी की भाँति
रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे ।
दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया ॥ ७ ॥ उन्होंने कहा—‘देवराज ! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं । महाभाग ! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो !’ ॥८॥
इन्द्रने
कहा—इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का
अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है । प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जानेपर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ ९ ॥
नारदजी
ने कहा—‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक,अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुम में उस को मारने की शक्ति नहीं है’
॥ १० ॥ देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने
मेरी माता को छोड़ दिया । और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये
॥११॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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