॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
श्रीनारद
उवाच
एवं
दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः
उवाच
तान्स्मयमानः स्मरन्मदनुभाषितम् ||१||
श्रीप्रह्लाद
उवाच
पितरि
प्रस्थितेऽस्माकं तपसे मन्दराचलम्
युद्धोद्यमं
परं चक्रुर्विबुधा दानवान्प्रति ||२||
पिपीलिकैरहिरिव
दिष्ट्या लोकोपतापनः
पापेन
पापोऽभक्षीति वदन्तो वासवादयः ||३||
तेषामतिबलोद्योगं
निशम्यासुरयूथपाः
वध्यमानाः
सुरैर्भीता दुद्रुवुः सर्वतो दिशम् ||४||
कलत्रपुत्रवित्ताप्तान्गृहान्पशुपरिच्छदान्
नावेक्ष्यमाणास्त्वरिताः
सर्वे प्राणपरीप्सवः ||५||
व्यलुम्पन्राजशिबिरममरा
जयकाङ्क्षिणः
इन्द्रस्तु
राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत् ||६||
नारदजी
कहते हैं—युधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया ।
कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ १ ॥
प्रह्लादजी
ने कहा—जब हमारे पिता जी तपस्या करने के लिये मन्दराचलपर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया ॥
२ ॥ वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया ॥ ३ ॥
जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब
उनका साहस जाता रहा । वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र,मित्र, गुरुजन,महल,पशु और साज-सामान की कुछ भी चिन्ता न करके वे
अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ॥ ४-५ ॥ अपनी
जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँतक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधू को भी बन्दी बना लिया ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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