॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०७)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
केवलानुभवानन्द
स्वरूपः परमेश्वरः ।
माययान्तर्हितैश्वर्य
ईयते गुणसर्गया ॥ २३ ॥
तस्मात्सर्वेषु
भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम् ।
आसुरं
भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः ॥ २४ ॥
तुष्टे
च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः ।
धर्मादयः
किमगुणेन च काङ्क्षितेन
सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥ २५ ॥
वे
(भगवान) केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र
परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा
है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिये तुमलोग अपने
दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर
दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ २४ ॥
आदिनारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है,जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म,
अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है—वे तो
गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलनेवाले हैं । जब हम श्रीभगवान् के
चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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