॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०८)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
धर्मार्थकाम
इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।
मन्ये
तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ २६
॥
ज्ञानं
तदेतदमलं दुरवापमाह
नारायणो नरसखः किल नारदाय ।
एकान्तिनां
भगवतः तदकिञ्चनानां
पादारविन्द रजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात् ॥ २७
॥
श्रुतं
एतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम् ।
धर्मं
भागवतं शुद्धं नारदाद् देवदर्शनात् ॥ २८ ॥
यों
शास्त्रों में धर्म,अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है ।
आत्मविद्या,कर्मकाण्ड, न्याय
(तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन—ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये
अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण
करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ
। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ २६ ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको
बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर- नारायण ने
नारदजी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तों के चरणकमलों की धूलि
से अपने शरीर को नहला लिया है ॥ २७ ॥ यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है।
इसे मैंने भगवान् का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारदजी के मुँहसे ही पहले-पहल सुना
था ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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