॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१६)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
दैतेया
यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा व्रजौकसः
खगा
मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः ||५४||
एतावानेव
लोकेऽस्मिन्पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे
यत्सर्वत्र तदीक्षणम् ||५५||
भगवान्
की भक्तिके प्रभावसे दैत्य,
यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ,
शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी,
मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भावको प्राप्त हो गये हैं ॥ ५४ ॥
इस संसारमें या मनुष्य-शरीरमें जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ
इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्तिका स्वरूप
है सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओंमें भगवान्का दर्शन ॥ ५५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते
दैत्यपुत्रानुशासनं नाम सप्तमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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