॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीनारद
उवाच
अथ
दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम्
जगृहुर्निरवद्यत्वान्नैव
गुर्वनुशिक्षितम् ||१||
अथाचार्यसुतस्तेषां
बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम्
आलक्ष्य
भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद्यथा ||२||
श्रुत्वा
तदप्रियं दैत्यो दुःसहं तनयानयम्
कोपावेशचलद्गात्रः
पुत्रं हन्तुं मनो दधे ||३||
क्षिप्त्वा
परुषया वाचा प्रह्रादमतदर्हणम्
आहेक्षमाणः
पापेन तिरश्चीनेन चक्षुषा ||४||
प्रश्रयावनतं
दान्तं बद्धाञ्जलिमवस्थितम्
सर्पः
पदाहत इव श्वसन्प्रकृतिदारुणः ||५||
हे
दुर्विनीत मन्दात्मन्कुलभेदकराधम
स्तब्धं
मच्छासनोद्वृत्तं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम् ||६||
क्रुद्धस्य
यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः
तस्य
मेऽभीतवन्मूढ शासनं किं बलोऽत्यगाः ||७||
नारदजी
कहते हैं—प्रह्लादजीका प्रवचन सुनकर दैत्यबालकोंने उसी समयसे निर्दोष होनेके कारण,
उनकी बात पकड़ ली। गुरुजीकी दूषित शिक्षाकी ओर उन्होंने ध्यान ही न
दिया ॥ १ ॥ जब गुरुजीने देखा कि उन सभी विद्यार्थियोंकी बुद्धि एकमात्र भगवान्में
स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के
पास जाकर निवेदन किया ॥ २ ॥ अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को
सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्तमें उसने यही निश्चय किया कि
प्रह्लाद को अब अपने ही हाथसे मार डालना चाहिये ॥ ३ ॥
मन
और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले प्रह्लादजी बड़ी नम्रतासे हाथ जोडक़र चुपचाप
हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कारके सर्वथा अयोग्य थे। परंतु हिरण्यकशिपु
स्वभावसे ही क्रूर था। वह पैरकी चोट खाये हुए साँपकी तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी
ओर पापभरी टेढ़ी नजरसे देखा और कठोर वाणीसे डाँटते हुए कहा— ॥ ४-५ ॥ ‘मूर्ख ! तू बड़ा उद्दण्ड हो गया है। स्वयं
तो नीच है ही, अब हमारे कुलके और बालकोंको भी फोडऩा चाहता है
! तूने बड़ी ढिठाईसे मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। आज ही तुझे यमराजके घर भेजकर
इसका फल चखाता हूँ ॥ ६ ॥ मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ, तो
तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की
तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?’ ॥७॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें